________________ 754] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * अष्टम उद्देशक का नाम नित्ति ' है। इसमें जीव, कर्म, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, कषाय, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान, संज्ञा, लेश्या, दष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग इन 16 बोलों की निवृत्ति (निष्पत्ति) के भेद तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में उनकी प्ररूपणा की गई है / नौवाँ उद्देशक 'करण' है। इसमें सर्वप्रथम करण के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये 5 भेद किये गए हैं / तदनन्तर शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, कषाय, समुद्घात, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, वेद आदि करणों के भेदों की तथा किस जीव में कौन-सा करण कितनी संख्या में पाया जाता है, इसका लेखाजोखा दिया गया है / तत्पश्चात् पंचविध पुद्गल करण के भेद-प्रभेदों का निरूपण है। * दसवें उद्देशक का नाम वनचरसुर (वाणव्यन्तर देव) है। इसमें वाणव्यन्तर देवों के आहार, शरीर और श्वासोच्छवास की समानता की चर्चा की गई है। तदनन्तर उनमें पाई जाने वाली आदि को चार लेश्याओं को तथा किस लेश्या वाला वाणव्यन्तर किस लेश्या वाले से अल्पद्धिक या महद्धिक है, इत्यादि चर्चा की गई है। * कुल मिला कर इस शतक में जीवों से सम्बन्धित लेश्या, गर्भपरिणमन आदि की ज्ञातव्य चर्चा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org