________________ 303 व्याख्यानप्तिसूत्र जहाँ एक यवाकृतिनिष्पादक परिमण्डलसंस्थान-समुदाय होता है, उस क्षेत्र में यवाकारनिष्पादक परिमण्डल के सिवाय दूसरे परिमण्डलसंस्थान कितने होते हैं ? यह प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर दिया गया है-वे परिमण्डलसंस्थान अनन्त-अनन्त होते हैं। इसी प्रकार वृत्तादि संस्थानों के विषय में भी समझना चाहिए।' कठिन शब्दार्थ-जवमज्भे-यवमध्ययवाकार / पांच संस्थानों में प्रदेशतः अवगाहना-निरूपण 37. बट्टे णं भंते ! संठाणे कतिपएसिए, कतिपएसोगाढे पन्नते ? गोयमा ! बट्टे संठाणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-घणवढे य, पयरवट्टे य / तत्थ गंजे से पयरवटे से दुविधे पन्नते, तं जहा--ओयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / सत्य णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पंचपएसिए, पंचपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंतपएसिए, प्रसंखेज्जपएसोगाडे / तत्थ णं जे जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बारसपएसिए, बारसपएसोगाढे; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेज्जपदेसोगाढे / तत्थ णं जे से घणवढे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-प्रोयपएसिए य जुम्मपएसिए य / तत्थ गंजे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं सत्तपएसिए, सत्तपएसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए, प्रसंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बत्तीसपएसिए, बत्तीसपएसोगाठे पन्नत्ते; उक्कोसेणं प्रणतपसिए, असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। |37 प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान कितने प्रदेश वाला है और कितने प्रकाशप्रदेशों में अवगाढरहा हुअा है ? [37 उ.] गौतम ! वृत्तसंस्थान दो प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार--घनवृत्त और प्रतरवृत्त / इनमें जो प्रतरवृत्त है, वह दो प्रकार का कहा है। यथा--प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / इनमें से प्रोज-प्रदेशिक प्रतरवृत्त जघन्य पंच-प्रदेशिक और पांच आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्यात आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ है और जो युग्मप्रदेशिक प्रतरवृत्त है, वह जघन्य बारह प्रदेश वाला और बारह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशिक और असंख्यात आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। ___ घनवृत्तसंस्थान दो प्रकार का कहा गया है। यथा--प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / प्रोज-प्रदेशिक जघन्य सात प्रदेश वाला और सात प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशों वाला और असंख्यात अाकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है। युगम-प्रदेशिक घनवृत्तसंस्थान जघन्य बत्तीस प्रदेशों वाला और बत्तीस आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशों वाला और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है। 38. तसे गं भंते ! संठाणे कतिपएसिए कतिपएसोगाढे पन्नते ? गोयमा ! तंसे णं संठाणे दुविहे पन्नते, तं जहा-घणतंसे य पयरतंसे य। तस्थ णं जे से 1. श्रीमद्भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. 205 2. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3219 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org