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________________ ज्ञान और क्रिया जैनधर्म ने न अकेले ज्ञान को महत्व दिया है और न अकेली क्रिया को। साधना की परिपूर्णता के लिये ज्ञान और क्रिया दोनों का समन्वय प्रावश्यक है। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि सुव्रत और कुव्रत में क्या अन्तर है ? समाधान देते हुए भगवान महावीर ने कहा-जो साधक व्रत ग्रहण कर रहा है उसे यदि यह परिज्ञान नहीं है कि यह जीव है या अजीव है ? स है या स्थावर है ? उसके व्रत सुव्रत नहीं हैं। क्योंकि जब तक परिज्ञान नहीं होगा तब तक वह व्रत का सम्यक प्रकार से पालन नहीं कर सकेगा। परिज्ञानवान् व्यक्ति का व्रत ही सुव्रत है। वही पूर्ण रूप से व्रत का पाराधन कर सकता है।६५ गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि शील श्रेष्ठ है तो किन्हीं चिन्तकों का कथन है कि श्रत श्रेष्ठ है। तो तृतीय प्रकार के चिन्तक शील और श्रत दोनों को श्रेष्ठ मानते हैं। प्रापका इस सम्बन्ध में क्या अभिमत है ? भगवान् महावीर ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा-इस विराट् विश्व में चार प्रकार के पुरुष हैं 1. जो शोलसम्पन्न हैं पर श्रुतसम्पन्न नहीं, वे पुरुष धर्म के मर्म को नहीं जानते, अतः अंश से पाराधक हैं। 2. श्रुतसम्पन्न हैं पर शील सम्पन्न नहीं, वे पुरुष पाप से निवृत्त नहीं हैं पर धर्म को जानते हैं, इसलिये वे अंश से विराधक हैं। ___3. कितने ही शीलसम्पन्न हैं और श्रुतसम्पन्न भी हैं, वे पाप से पूर्ण रूप से बचते हैं, इसलिये वे पूर्ण रूप से आराधक हैं। 4. जो न शीलसम्पन्न हैं और न श्रतसम्पन्न हैं, वे पूर्ण रूप से विराधक हैं। प्रस्तुत संवाद में भी भगवान महावीर ने उस साधक के जीवन को श्रेष्ठ बतलाया है जिसके जीवन में ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा रहा हो और साथ ही ज्ञान के अनुरूप जो उत्कृष्ट चा करता हो। भगवान महावीर के युग में अनेक दार्शनिक ज्ञान को ही महत्व दे रहे थे। उनका यह अभिमत था कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है। प्राचरण की कोई आवश्यकता नहीं। कुछ दार्शनिकों का यह बज्राघोष था कि मुक्ति के लिये ज्ञान की नहीं, चारित्रपालन की आवश्यकता है। मिश्री की मधुरता का परिज्ञान न होने पर भी उसकी मिठास का अनुभव मिश्री को मुह में डालने पर होता ही है। यह नहीं होता कि मिश्री के विशेषज्ञ को मिश्री का मिठास अधिक अनुभव होता हो। इसलिये "आचार: प्रथमो धर्म:" है / पर भगवान महावीर ने कहा कि अनन्त आकाश में उड़ान भरने के लिये पक्षी की दोनों पांखें सशक्त चाहिये, वैसे ही साधना की परिपूर्णता के लिये श्रुत और शील दोनों की प्रावश्यकता है। भगवान महावीर ने प्राराधना तीन प्रकार की बताई हैं-ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना / जहाँ तीनों में उत्कृष्टता आ जाती है, वह साधक उसी भव में मुक्ति को प्राप्त होता है / एक में भी अपूर्णता होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता / दर्शन की प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है। ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है और चारित्र की परिपूर्णता चौदहवें गुणस्थान में। जब तीनों परिपूर्ण होते हैं तब मात्मा मुक्त बनता है।८६ कर्मबन्ध और क्रिया भारतीय दर्शन में बन्ध के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन हुआ है / बन्धन ही दुःख है / समग्न आध्यात्मिक चिन्तन बन्धन से मुक्त होने के लिये है। बन्धन की वास्तविकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। जैनदष्टि से 85. भगवती. शतक 7, उद्देशक 2 86. भगवती. शतक 8, उद्देशक 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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