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________________ दो सूत्रों को पकड़ कर वस्तुस्थिति के अन्तस्तल में प्रवेश किया जाता है और निरीक्षण-परीक्षण कर रहस्यों को उदघाटित किया जाता है। गणधर गौतम भी प्रायः इन दो वाक्यों के आधार पर अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं पर उनकी जिज्ञासा की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे केवल प्रश्न के लिए प्रश्न नहीं करते वरन समाधान के लिए प्रश्न करते हैं। उनकी जिज्ञासा में सत्य की बुभुक्षा है। उनके संशय में समाधान की गूंज है। उनके कुतूहल में विश्व-वैचित्य को समझने की छटपटाहट है। उनकी सच्ची जिज्ञासु वृत्ति को देख कर ही भगवान महावीर प्रत्येक प्रश्न का समाधान करते हैं और समाधान पाकर गणधर गौतम कृतकृत्य हो जाते हैं तथा विनयपूर्वक नम्र नों में निवेदन करते है--सेवं अन्त ! सेवं मन्ते ! तहमेयं भन्ते ! अर्थात हे प्रभो! जैसा आपने कहा है वह पूर्ण सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा करता हूँ। महावीर के उत्तर पर श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होंने जो अनुगंज की है, वस्तुतः यह प्रश्नोत्तर की आदर्श पद्धति है। उत्तरदाता के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव व्यक्त किया गया है, जो बहत ही प्रावश्यक है / इसमें प्रश्नकर्ता के समाधान की स्वीकृति भी है और हृदय की अनन्त श्रद्धा भी। विषय वर्णन की दृष्टि से भगवतीसूत्र में विविध विषयों का संकलन है। उन सभी विषयों पर प्रस्तावना में लिखना सम्भव ही नहीं है। क्योंकि भगवतीसूत्र अपने आप में स्वयं एक विराट् प्रागम है। इसमें गणधर गौतम के तथा अन्यान्य साधकों के हजारों प्रश्न और समाधान हैं। तथापि विषय वर्णन की दृष्टि से संक्षेप में निम्न खण्डों में इसकी विषयवस्तु को विभक्त कर सकते हैं प्रथम साधना खण्ड में हम उन सभी प्रसंगों को ले सकते हैं जो साधना से सम्बन्धित हैं। साधना का प्रारम्भ होता है---सत्संग से / सर्वप्रथम व्यक्ति सन्त के पास पहुंचता है। सन्त के पास पहुंचने से उसको उपदेश नने को मिलता है। उपदेश सुनकर उसे सम्यग्ज्ञान समुत्पन्न होता है। सम्यग्ज्ञान समुत्पन्न होने पर वह जड़ और चेतन के स्वरूप को समझकर भेदविज्ञान से यह समझता है कि जड़ तस्व पृथक है और चेतन तत्त्व पृथक है। दोनों तत्व पय-पानीवत् मिल चके हैं। भेदविज्ञान से वह दोनों की पृथक सत्ता को समझता है और उनको पृथक-पृथक करने के लिये प्रत्याख्यान स्वीकार करता है। संयम की साधना करता है, जिससे वह माने वाले आश्रव का निहन्धन कर लेता है और जो अन्दर विजातीय तत्त्व रहा हुआ है उसे धीरे-धीरे तपश्चरण द्वारा नष्ट करने से मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का निरुन्धन कर वह आत्मा सिद्धि को वरण करता है।६३ यह है सत्संग की महिमा और गरिमा। सत्, प्रात्मा है / उसका संग ही वस्तुत: सत्संग है / अनन्त काल से आत्मा पर-संग में उलझा रहा। जब आत्मा पर-संग से मुक्त होता है और स्व-संग करता है, तभी वह मुक्त बनता है। मुक्ति का अर्थ है पर-संग से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त हो जाना / इस तथ्य को शास्त्रकार ने बहुत ही सरल रूप से प्रस्तुत किया। सत्संग करने वाला साधक ही धर्म मार्ग को स्वीकार करता है। गणधर गौतम ने भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि केवलज्ञानी से या उनके उपासकों से बिना सुने जीव को वास्तविक धर्म का परिज्ञान होता है ? समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा---गौतम! किसी जीव को होता है और किसी को नहीं होता। यही बात सम्यग्दर्शन और सम्पचारित्र के सम्बन्ध में भी कही गई है। प्रश्नोत्तरों से यह स्पष्ट है कि धर्म और मुक्ति का प्राधार आन्तरिक विशुद्धि है। जब तक आन्तरिक विशुद्धि नहीं होती तब तक मुक्ति सम्भव नहीं है। जिनका मानस सम्प्रदायवाद से ग्रसित है उनके लिये प्रस्तुत वर्णन चिन्तन की दिव्य ज्योति प्रदान करेगा। 83. भगवती शतक 2, उद्देशक 5 84. भगवती शतक 9, उद्देशक 29 [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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