________________ इक्कीसवां शतक : उद्देशक 1] देवों की उत्पत्ति मूल में क्यों नहीं ?-प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में वनस्पति में देवों की उत्पत्ति बतलाई गई है, किन्तु यहाँ शालि प्रादि वनस्पति के मूल में देवों की उत्पत्ति का निषेध इसलिए किया गया है कि देव वनस्पति के पुष्प आदि शुभ अंगों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु उसके मूल आदि अशुभ अंगों में नहीं / इसलिए मूलपाठ में कहा गया है-'णवरं देववज्ज / ' अर्थात् देव देवगति से प्राकर शालि आदि के मूल आदि में उत्पन्न नहीं होते। वनस्पति में जघन्य एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन कैसे? - यद्यपि वनस्पति में सामान्यतया प्रतिसमय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं, किन्तु शालि आदि प्रत्येकशरीरी होने से इनमें जघन्यतः एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है / अपहारः-उन शालि आदि के जीवों का प्रतिसमय अपहार किया जाए (एक-एक करके निकाला जाए), तो असंख्य उत्सपिणी-अवपिणी बीत जाने पर भी वे पूरी तरह निकाले नहीं जा सकते। (यद्यपि ऐसा किसी ने कभी किया नहीं और किया भी नहीं जा सकता)। कर्मबन्धक-शालि आदि के जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्धक हैं, अबन्धक नहीं। लेश्या सम्बन्धी छब्बीस भंग कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं के एकवचन और बहुवचन से सम्बन्धित असंयोगी तीन-तीन भंग होने से छह भंग असंयोगी होते हैं / कृष्ण-नील, कृष्ण-कापोत, और नील-कापोत, यों द्विकसंयोगी तीन भंग होते हैं। इनके प्रत्येक के एकवचन और न से सम्बन्धित चार-चार भंग होने से कुल 12 भंग द्विकसंयोगी हए / त्रिकसंयोगी एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी पाठ भंग होते हैं। इस प्रकार ये कुल 6+ 12+8=26 भंग होते हैं / दो प्रकार की स्थिति-भव की अपेक्षा इनकी गमनागमन की स्थिति जघन्य दो भव की और उत्कृष्ट असंख्यात भव तक की है, जबकि काल की अपेक्षा स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक की है। समुद्घात-प्राप्ति-शालि आदि जीवों में वेदना, कषाय और मरण, ये तीन समुद्घात होते हैं / ये समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। मर कर ये मनुष्य और तिर्यञ्च गति में जाते हैं, इत्यादि वर्णन ग्यारहवें शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार जान लेना चाहिए। दृष्टि आदि-मिथ्यादृष्टि हैं, अज्ञानी हैं, काययोगी हैं, द्विविध उपयोगी हैं, इत्यादि सब उत्पलोद्देशक के अनुसार कहना चाहिए।' // इक्कीसवां शतक : प्रथमवर्ग, प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र८०१ (ख) 'गोयमा ! नो अबंधगा, बंधए वा बंधगा वा / ...-उत्पलोहेशक शतक 11, 3.1. (ग) भगवती. विवेचन भा.६. (6. घेवरचन्दजी), पृ. 2945 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org