SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2755
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसमो उद्देसओ : दसवाँ उद्देशक चरम नैरयिकादि को पापकर्मादिबन्ध चरम चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 1. चरिमे णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो तहेब चरिमेहि वि निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / ॥छश्वीसइमे सए : बसमो उद्देसनो समत्तो।। 26-10 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या चरम नै रयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न। [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक उद्देशक कहा था, उसी प्रकार चरम नैरयिकादि के सम्बन्ध में यह समग्र उद्देशक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन चरम नै रयिक : स्वरूप और समाधान- जिसका नरकभव चरम-अन्तिम है, अर्थात् जो नरक से निकल कर मनुष्यादि गति में जाकर मोक्ष प्राप्त करेगा, किन्तु पुनः लौटकर नरक में नहीं जाएगा, वह 'चरम नै रयिक' कहलाता है। प्रस्तुत में चरम नैरयिक के लिए परम्परोपपन्नक उद्देशक का अतिदेश किया है और परम्परोद्देशक के लिए प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया है। फिर भी मनुष्यपद की अपेक्षा प्रायष्यकर्मबन्ध के विषय में यह विशेषता है कि प्रथम उद्देशक से प्रायष्यकर्मबन्ध के सामान्यतः चार भंग कहे हैं, परन्तु चरम मनुष्य के सम्बन्ध में केवल चौथा भंग ही घटित होता है, क्योंकि जो चरम मनुष्य है, उसने पहले (पूर्वभव में) आयुष्य बांधा था, वर्तमान समय में नहीं बांधता है और भविष्यत्काल में भी नहीं बांधेगा। यदि ऐसा न हो तो उसकी चरमता ही घटित नहीं हो सकती। बत्तिकार का यह कथन है। किन्तु यह मनुष्यभव की अपेक्षा चरम है। इसलिए वह नरक, तिर्यञ्च और देवगति में तो नहीं जाएगा, किन्तु मनुष्य के उत्कृष्ट पाठ भव तक करते हुए भी मनुष्य का चरमपन कायम रहता है और ऐसा होने पर उसको आयुष्य की अपेक्षा चारों भंग घटित हो सकते हैं। // छवोसवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 937 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग, 7, पृ. 3577-3578 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy