________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [7 [4. प्र.] भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल (कमल) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला? [4. उ.] गौतम ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरान्त जब उस उत्पल में दूसरे जीव (जीवाश्रित पत्र प्रादि अवयव) उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रह कर अनेक जीव वाला बन जाता है / / विवेचन--उत्पत्तः एकजीवी या अनेकजीवी?प्रस्तुत चतुर्थ सूत्र में बताया गया है कि उत्पल जब एक पत्ते वाला होता है तब उसकी वह अवस्था किसलय अवस्था से ऊपर की होती है। जब उसके एक पत्र से अधिक पत्ते उत्पन्न हो जाते हैं तब वह अनेक जीव वाला हो जाता है।' 5. ते णं भंते ! जीवा कतोहितो उववज्जति ? कि नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्खजोणिएहितो उक्वज्जति, मणुस्से हितो उववज्जंति, देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरतिएहितो उबवजंति, तिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति, मणुस्सेहितो वि उववज्जति, देवेहितो वि उववज्जंति / एवं उववाओ भाणियन्वो जहा वक्कंतीए वसतिकाइयाणं जाव ईसाणो ति। [दारं 1] / [5 प्र.] भगवन् ! उत्पल में वे जीव कहाँ से पा कर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नै रयिकों से आ कर उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं अथवा मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! वे जीव नारकों से पा कर उत्पन्न नहीं होते, वे तिर्यञ्चयोनिकों से भी आ कर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से भी और देवों से भी पा कर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र से छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार-वनस्पतिकायिक जीवों में यावत् ईशान-देवलोक तक के जीवों का उपपात होता है। [ प्रथम द्वार] विवेचन-उत्पल जीवों की अपेक्षा से प्रथम उपपातद्वार ----प्रस्तुत पंचम सूत्र में उत्पल जीवों की उत्पत्ति तीन गतियों से बताई गई है--तियंच से, मनुष्य से और देव से। वे नरकगति से आकर . उत्पन्न नहीं होते। 2. परिमाणद्वार 6. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति / [दारं 2] [6 प्र.] भगवन् ! उत्पलपत्र में वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे जीव एक समय में जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कृष्टतः संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। [-द्वितीय द्वार] 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 511-512 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 507 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org