________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-- उत्पल जीव की अपेक्षा से द्वितीय परिमाणद्वार–प्रस्तुत छठे सूत्र में बताया गया है कि वे जीव कम से कम एक समय में एक, दो या तीन, और अधिक से अधिक संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 3. अपहारद्वार 7. ते णं भंते ! जीवा समए समए अबहीरमाणा अवहीरमाणा केवतिकालेमं अवहोरंति ? गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। [वारं 3] / [7 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव एक-एक समय में एक-एक निकाले जाएं तो कितने काल में पूरे निकाले जा सकते हैं ? [7 उ.] गौतम ! यदि बे असंख्यात जीव एक-एक समय में एक-एक निकाले जाएँ और उन्हें असंख्य उत्सर्पिणी और अवसपिणी काल तक निकाला जाय तो भी वे पूरे निकाले नहीं जा सकते / -तृतीय द्वार विवेचन-उत्पल जीव को अपेक्षा से अपहारद्वार---प्रस्तुत सप्तम पूत्र में यह प्ररूपणा की गई है कि यदि उत्पल के असंख्यात जीव प्रतिसमय एक-एक के हिसाब से निकाले जाएँ और वे असंख्य उत्सपिणी-अवपिणीकालपर्यन्त निकाले जाते रहें तो भी पूरे नहीं निकाले जा सकते / तात्पर्य यह है कि असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी कालों में जितने समय हैं, उनसे भी अधिक संख्या उन जीवों की है। 4 उच्चत्वद्वार 8. तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं। [दारं 4] / - प्र.] भगवन् ! उन (उत्पल के) जीवों की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम ! उन जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन होती है। -चतुर्थ द्वार] विवेचन ---उत्पल जीवों को अवगाहना--अवगाहना का अर्थ है—ऊँचाई। उत्पलजीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन है। जो तथाविध समुद्र, गोतीर्थ आदि में उत्पन्न उत्पल की अपेक्षा से कही गई है।' 5 सेर तक-ज्ञानावरणीयादि-बन्ध-वेद-उदय-उदीरणाद्वार-- 9. ते गं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा, अबंधगा? गोयमा! नो अबंधगा, बंधए वा बंधगा वा। एवं जाव अंतराइयस्स / नवरं आउयस्स पुच्छा / गोयमा ! बंधए वा 1, अबंधए वा 2, बंधगा वा 3, अबंधगा वा 4, अहवा बंधए य प्रबंधए य 5, अहबा बंधए य अबंधगा य 6, अहवा बंधगा य प्रबंधगे य 7, अहवा बंधगा य प्रबंधगा य 8, एते अट्ठ भंगा। [दारं 5] / 1. भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 512 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org