________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___4. कण्हपक्खिया, सुक्कयक्खिया एवं जाव प्रणागारोवउत्ता। [4] कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक (से लेकर) अनाकारोपयुक्त तक इसी प्रकार का कथन करना चाहिए। 5. नेरतिया णं भंते ! पावं कम्म कहि समजिणि ? कहि समायरिंसु ? गोयमा! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं चेव अट्ट भंगा भाणियव्वा / [5 प्र.] भगवन् ! नरयिकों ने कहाँ (किस गति या योनि में) पापकर्म का समर्जन और कहाँ समाचरण किया था? [5 उ.] गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्ववत् पाठों भंग यहाँ कहने चाहिए। 6. एवं सम्वत्थ अट्ट भंगा जाव प्रणागारोवउत्ता। [6] इसी प्रकार सर्वत्र यावत् अनाकारोपयुक्त तक पाठ-अाठ भंग कहने चाहिए। 7. एवं जाव वेमाणियाणं / [0] इसी प्रकार (दण्डक के क्रम से) यावत् वैमानिक पर्यन्त प्रत्येक के पाठ-पाठ भंग जानने चाहिए। 8. एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडो। [8] इसी प्रकार ज्ञानावरणीय के विषय में भी 8 भंग समझने चाहिए। 6. एवं जाव अंतराइएणं। [6] (दर्शनावरणीय से लेकर) यावत् अन्तरायिक तक इसी प्रकार जानना चाहिए। 10. एवं एते जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा नव दंडगा भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / ॥अदावोसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 28-1 // [10] इस प्रकार जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये नौ दण्डक होते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचनः-समर्जन और समाचरण का विशेषार्थ-समर्जन का विशेषार्थ है---पापकर्मों का समर्जन अर्थात् --उपार्जन और समाचरण का विशेषार्थ है—पापकर्म के हेतुभूत पापक्रिया का प्राचरण या उसके विपाक का अनुभव / यहाँ प्रश्न का प्राशय यह है कि जीव ने पापक्रिया के समाचरण द्वारा किस गति में पापकर्म का उपार्जन किया था ? अथवा समर्जन और समाचरण ये दोनों एकार्थक (पर्यायवाची) शब्द हैं / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 939 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org