________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [ 57 24. [1] कालओ णं आहेलोयखेत्तलोए न कदायि नासि जाव निच्चे / [24-1] काल से---अधोलोक-क्षेत्रलोक किसी समय नहीं था---ऐसा नहीं ; यावत् वह नित्य है। [2] एवं जाव अलोगे। 124-2] इसी प्रकार यावत् अलोक के विषय में भी कहना चाहिए / 25. भावओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंता वष्णपज्जवा जहा खंदए (स. 2 उ. 1 सु. 24 [1]) जाव प्रणता अगरुयलयपज्जवा / 25-1 भाव से—अधोलोक-क्षेत्रलोक में 'अनन्तवर्णपर्याय' हैं, इत्यादि, द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक (सु. 24-1) में वर्णित स्कन्दक-प्रकरण के अनुसार जानना चाहिए, यावत् अनन्त अगुरुलघु-पर्याय हैं। [2] एवं जाव लोए। |25-2| इसी प्रकार यावत् लोक तक जानना चाहिए। [3] भावओ णं अलोए नेवस्थि वण्णपज्जवा जाब नेवस्थि अगस्यलयपज्जवा, एगे अजीबदव्वदेसे जाव अणंतभागणे। |25-3] भाव से अलोक में वर्ण-पर्याय नहीं, यावत् अगुरुलघु-पर्याय नहीं है, परन्तु एक अजीबद्रव्य का देश है, यावत् वह सर्वाकाश के अनन्त भाग कम है। विवेचन द्रव्य, काल और भाव से लोकालोक-प्ररूपणा–प्रस्तुत तीन सूत्रों (22 से 24 तक) में द्रव्य, काल और भाव की अपेक्षा से लोक और अलोक की प्ररूपणा की गई है। लोक की विशालता की प्ररूपणा 26. लोए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे सम्वदीव० जाव' परिक्खेवणं / तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिडोया जाव महेसक्खा जंबुद्दीवे दोवे मंदरे पब्बए मंदरचलियं सवओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा। ग्रहे णं चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ चत्तारि बलिपिडे गहाय जंबुद्दोवस्स दीवस्त चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिडे जगसमगं बहियाभिमुहे पविखवेज्जा। पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिताहरित्तए / ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाब' देवगतीए एगे देवे पुरस्थाभिमुहे पयाते, एवं दाहिणाभिमुहे, 1. 'जाव' पद सूचित पाठ—"सम्वदीवसमुदाणं अम्भंतरए सव्वखुड्डए जट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए बट्टे रहचक्क वालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकग्णियासंठाणसंठिए वट्टै पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साई दोषिण य सत्ताबीसे जोयणसए तिष्णि य कोसे अदाबीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाइ अद्धंगुलं च किचि विसेसाहियं ति"। -भगवती. अ. बु., पत्र 527 2. 'जाव' पद सुचित पाठ-"तुरियाए चवलाए चेंडाए सीहाए उद्धयाए जयणाए छयाए दिखाए। --भग. प्र. व., पत्र 527 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org