________________ 282] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 138. [1] सकसाई गं भंते ! * ? जहा सइंदिया (सु. 44) / [138-1 प्र] भगवन् ! सकषायी जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [138-1 उ.] गौतम ! सकषायी जीवों का कथन से न्द्रिय जीवों के समान (सू. 44 के अनुसार) जानना चाहिए। [2] एवं जाव लोहकसाई / [138-2] इसी प्रकार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 136. प्रकसाई णं भंते ! कि गाणी० ? पंच नाणाई, भयणाए / 13 / [136 प्र.] भगवन् ! अकषायी (कषायमुक्त) जीव ज्ञानी होते हैं, अथवा अज्ञानी ? [136 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। __ (तेरहवां द्वार) 140. [1] सवेदगा णं भंते ! * ? जहा सइंदिया (सु. 44) / [140-1 प्र.] भगवन् ! सवेदक (वेदसहित) जीव ज्ञानी होते हैं, अथवा अज्ञानी ? [140-1 उ.] गौतम ! सवेदक जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों के समान (सू. 44 के अनुसार) जानना चाहिए। [2] एवं इस्थिवेदगा वि / एवं पुरिसवेयगा। एवं नपुंसकवे० / [140-2] इसी तरह स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक और नपुसकवेदक जीवों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। 141. अवेदगा जहा अकसाई (सु. 136) / 14 / [141] अवेदक (वेदरहित) जीवों का कथन अकषायी जीवों के समान (सू. 136 के अनुसार) जानना चाहिए। (चौदहवाँ द्वार) 142. पाहारगा णं भंते ! जीवा ? जहा सकसाई (सु. 138), नवरं केवलनाणं पि / [142 प्र.] भगवन् ! आहारक जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [142 उ.] गौतम ! आहारक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान (सू. 138 के अनुसार) जानना चाहिए, किन्तु इतना विशेष है कि उनमें केवलज्ञान भी पाया जाता है / 143. अणाहारगाणं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी? मजपज्जवनाणवज्जाइनाणाई, अन्नाणाणि य तिणि भयणाए / 15 / For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org