________________ पन्द्रहवां शतक] [437 9. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए नगरोए अजिणे जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली केवलिप्पलावी, असवण्णू सवण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरति / |8और तब मखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महा-निमित्त के स्वल्प उपदेशमात्र से श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुए भी, 'मैं जिन हूँ' इस प्रकार प्रलाप करता हुआ, अर्हन्त न होते हुए भी, 'मैं अहत् हूँ', इस प्रकार का बकवास करता हुना, केवली न होते हुए भी, 'मैं केवली हूँ' इस प्रकार का मिथ्याभाषण करता हुआ, सर्वज्ञ न होते हुए भी 'मैं सर्वज्ञ हूँ', इस प्रकार मृषाकथन करता हुया और जिन न होते हुए भी अपने लिए 'जिनशब्द' का प्रयोग करता हुआ विचरता था। विवेचन-आजीविक मत प्रचार-प्रसार के तीन प्रारम्भिक निमित्त....प्रस्तत चार सत्रों स.६ से तक) में आजीविक-मतीय प्रचार-प्रसार के प्रारम्भिक तीन निमित्त कौन-कौन से बने ? इसकी संक्षिप्त झांकी दी है-(१) सर्वप्रथम मखलीपुत्र गोशालक के पास 6 दिशाचर शिष्यभाव से दीक्षित हुए। (2) तत्पश्चात् अष्टांग महानिमित्त शास्त्र के माध्यम से लोगों को जीवन की 6 बातों का उत्तर देना और (3) जिन, अर्हत् अादि न होते हुए भी स्वयं को जिन अर्हत् आदि के रूप में प्रकट करना। दिशाचर कौन थे? –वृत्तिकार ने दिशाचर का अर्थ किया है जो दिशा-मर्यादा में चलते हैं, या विविध दिशाओं में जो विचरण करते हैं और मानते हैं कि हम भगवान के शिष्य हैं / प्राचीन वृत्तिकार कहते हैं कि ये छह दिशाचर भगवान् के ही शिष्य थे, किन्तु संयम में शिथिल (पासत्थपार्श्वस्थ) हो गए थे। चूर्णिकार के मतानुसार ये भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानीय-शिष्यानुशिष्य (पाश्र्वापत्य) थे। अष्टांग महानिमित्त-अष्टविध महानिमित्त इस प्रकार हैं--(१) दिव्य, (2) औत्पात, (3) अान्तरिक्ष (4) भौम, (5) प्रांग, (6) स्वर, (7) लक्षण और (8) व्यंजन / कठिनशब्दार्थ-प्रविहं पुव्वगयं मग्गदसम : भावार्थ-पूर्व नामक श्रुतविशेष से उद्धत अष्टविध निमित्त तथा नवम-दशम दो मार्ग (नवम शब्द यहाँ लुप्त है), अर्थात्-गीतमार्ग (नौवा) और नृत्यमार्ग (दसवाँ) / केणइ उल्लोयमेत्तेण-किसी उल्लोकमात्र से-उपदेशमात्र सेकिसी प्रश्न का उत्तर देकर / सएहि मतिदसणेहि अपनी-अपनी बुद्धि और दृष्टि से--प्रमेयवस्तु के विश्लेषण से / निज्जहति-नियूं हण किया-अर्थात्-पूर्वलक्षण श्रुतपर्याय समूह से निर्धारित--उद्धत किया / उवट्ठाइंसु उपस्थित हुए.-उसके शिष्यरूप में प्राश्रित-दीक्षित हुए / अणइक्कमणिज्जाई --- 1. वियाहपण्णत्ति (मू. पा. टि. युक्त) भा. 2, पृ. 690 2. दिश—मेरां चरन्ति–यान्ति, मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिक्चराः देशाटा वा / दिक्चरा भगवच्छिष्याः पावस्थीभूता इति टीकाकारः / पासावच्चिज्जत्ति चर्णिकारः / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 659 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 659 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org