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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३] [141 [8] इसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में भी कहना चाहिए, परन्तु उनमें एक तेजोलेश्या अधिक होती है। (अर्थात्-उनमें कृष्ण, नील, कापोत और तेजो, ये चार लेश्याएँ होती हैं / ) 1. एवं जाव वेमाणिया, जस्स जति लेसाओ तस्स तति भाणियधारो। जोतिसियस्स न भणति / जाव सिय भते ! पम्हलेसे वेमाणिए प्रष्यकम्मतराए, सुक्कलेसे वेमाणिए महाकम्मतराए ? हंता, सिया। से केणढणं० सेसं जहा नेरइयस्स जाव महाकम्मतराए। [6] इसी तरह यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिए। जिसमें जितनी लेश्याएँ हों, उतनी कहनी चाहिए, किन्तु ज्योतिष्क देवों के दण्डक का कथन नहीं करना चाहिए। (प्रश्नोत्तर की संयोजना इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कर लेनी चाहिए, यथा-) [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या वाला वैमानिक कदाचित् अल्प कर्म वाला और शुक्ललेश्या वाला वैमानिक कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! कदाचित् होता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? [3.] (इसके उत्तर में) शेष सारा कथन नैरयिक की तरह यावत् 'महाकर्मवाला होता हैं'; यहाँ तक करना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकों में लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मत्व-महाकर्मस्व-प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 6 से 1 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिक दण्डक तक के जीवों में लेश्या के तारतम्य का सयुक्तिक निरूपण किया गया है / सापेक्ष कथन का प्राशय-सामान्यतया कृष्णलेश्या बाला जीव महाकर्मी और नीललेश्यावाला जीव उससे अल्पकर्मी होता है, किन्तु आयष्य की स्थिति की अपेक्षा से कृष्णलेश्यी जीव अल्पकर्मी और नीललेश्यी जीव महाकर्मी भी हो सकता है। उदाहरणार्थ-सप्तम नरक में उत्पन्न कोई कृष्णलेश्यो नैरयिक है, जिसने अपने आयुष्य की बहुत-सी स्थिति क्षय कर दी है, इस कारण उसने बहुत-से कर्म भी क्षय कर दिये हैं, किन्तु उसकी अपेक्षा कोई नीललेश्यी नैरयिक दस सागरोपम की स्थिति से पंचम नरक में अभी तत्काल उत्पन्न हुआ है, उसने अपने आयुष्य की स्थिति अभी अधिक क्षय नहीं की। इस कारण पूर्वोक्त कृष्णलेश्यी नैरयिक की अपेक्षा इस नीललेश्यी के कर्म अभी बहुत बाकी हैं / इस दृष्टि से नीललेश्यी कृष्णलेश्यो की अपेक्षा महाकर्मवाला है। ___ज्योतिष्क दण्डक में निषेध का कारण-ज्योतिष्क देवों मेंयह सापेक्षता घटित नहीं हो सकती, क्योंकि उनमें केवल एक तेजोलेश्या होती है। दूसरी लेश्या न होने से उसे दूसरी लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मी या महाकर्मी नहीं कहा जा सकता।' चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के तथा इन दोनों के समय के पृथक्त्व का निरूपण 10. [1] से नणं भते ! जावेदणा सा निज्जरा ? जानिज्जरा सा वेदणा ? गोयमा ! णो इण? समट्ठ। 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 301 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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