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________________ भगवतीसूत्र शतक 8, उद्देशक 6 में गणधर गौतम ने पूछा-एक श्रमण भिक्षा के लिये गृहस्थ के यहाँ गया / वहाँ पर उसे कुछ दोष लग गया। वह श्रमण सोचने लगा कि मैं स्थान पर पहुँच कर स्थविर मुनियों के पास पालोचना करूगा और विधिवत प्रायश्चित्त लूंगा। वह स्थविरों की सेवा में पहुंचा। पर उसके पूर्व ही स्थविर रुग्ण हो गये तथा उनकी वाणी बन्द हो गई। वह श्रमण प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं सका तो वह पाराधक है या विराधक ? भगवान् ने कहा-वह पाराधक है, क्योंकि उसके मन में पाप की आलोचना करने की भावना थी / यदि वह श्रमण स्वयं भी मूक हो जाता, पाप को प्रकट नहीं कर पाता तो भी वह आराधक था। क्योंकि उसके अन्तर्मानस में आलोचना कर पाप से मुक्त होने की भावना थी। पाप का सम्बन्ध भावना पर अधिक प्रवलम्बित है। ___ इस प्रकार भगवती में विविध प्रश्न पाप से निवृत्त होने के सम्बन्ध में पूछे गये। उन सभी प्रश्नों का सटीक समाधान भगवान महावीर ने प्रदान किया है। पाप की उत्पत्ति मुख्य रूप से राग-द्वेष और मोह के कारण होती है। जितनी-जितनी उनकी प्रधानता होगी, उतना-उतना पाप का अनुबन्धन तीन और तीव्रतर होगा / जैनधर्म में पाप के प्राणातियात, मृषावाद, अदत्तादान प्रादि अठारह प्रकार बताये हैं। बौद्धधर्म में कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर पाप या अकुशल कर्म के दस प्रकार प्रतिपादित हैं। 03 (1) कायिक पाप-१. प्राणातिपात (हिंसा), 2. अदत्तादान (चोरी), 3. कामेसुमिच्छाचार (कामभोग सम्बन्धी दुराचार)। (2) वाचिक पाप-४. मुसावाद (असत्य भाषण), 5. पिसुना वाचा (पिशुन वचन), 6. फरसा वाचा (कठोर वचन), 7. सम्फलाप (व्यर्थ पालाप) / (3) मानसिक पाप-८. अभिज्जा (लोभ), 9. व्यापाद (मानसिक हिंसा या अहित चिन्तन), 10. मिच्छादिट्ठी (मिथ्यादृष्टि)। अभिधम्मत्थसंगहो'०४ नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी चौदह अकुशल चैतसिक पापों का निरूपण हुआ है। वे इस प्रकार है 1. मोहमूढ़ता, 2. अहिरीक (निर्लज्जता), 3. अनोतप्पं अभीरुता (पापकर्म में भय न मानना) 4. उद्धच्चं--उद्धतपन (चंचलता), 5. लोभो (तृष्णा), 6. दिट्ठी-मिथ्यादृष्टि, 7. मानो-अहंकार, 8. दोसो-द्वेष, 9. इस्सा-ईया, 10. मच्छरियं-मात्सर्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), 11. कुक्कुच्च-कोकृत्य (कृत-अकृत के बारे में पश्चात्ताप), 12. थीनं, 13. मिद्धं, 14. विचिकिच्छाविचिकित्सा (संशय)। इसी प्रकार वैदिकपरम्परा के ग्रन्थ मनुस्मृति'०५ में भी पापाचरण के दस प्रकार प्रतिपादित हैं-- (क) कायिक-१. हिंसा, 2. चोरी, 3. व्यभिचार , 103. बौद्धधर्मदर्शन, भाग 1, पृष्ठ 480, ले. भरतसिंह उपाध्याय 104. अभिधम्मत्थसंगहो पृ. 19, 20 105. मनुस्मृति 12/5-7 [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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