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________________ 322] [ज्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 113. एवं जाव वेमाणियाणं। [113] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त जानना। विवेचन-श्रेणि और विश्रेणि—जीव और पद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान में श्रेणी के अनुसार (अनुश्रेणि) ही जाते हैं, विश्रेणी से (श्रेणी के विपरीत) नहीं। वृत्तिकार के अनुसार अनुकूल यानी पूर्वादि दिशा के अभिमुख प्राकाशप्रदेश की श्रेणि को अनुश्रेणि और विरुद्ध यानी विदिशा के आश्रित जो श्रेणि हो उसे विश्रेणि कहते हैं।' चौवीस दण्डकों की आवाससंख्या प्ररूपणा 114. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नता / एवं जहा पढमसते पंचमुद्देसए (स० 1 उ० 5 सु०२-५) जाव अणुत्तरविमाण ति। [114 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे हैं ? [114 उ.] गौतम ! उसमें तीस लाख नरकादास कहे हैं, इत्यादि प्रथम शतक के पांचवें उद्देशक (के सू. 2 से 5 तक) में कहे अनुसार यावत् अनुत्तर-विमान तक जानना चाहिए। द्वादशविध गणिपिटकों का अतिदेश पूर्वक निर्देश 115. कतिविधे णं भंते ! गणिपिडए पन्नत्ते? गोयमा ! दुवालसंगे गणिपिडए पन्नत्ते, तं जहा-पायारो जाव दिद्विवानो। [115 प्र.भगवन् ! गणिपिटक कितने प्रकार का कहा है ? [115 उ.] गौतम ! गणिपिटक बारह-अंगरूप (द्वादशांग रूप) कहा है / यथा-आचारांग यावत् दृष्टिवाद / 116. से कि तं मायारो? प्रायारे णं समणाणं निग्गंथाणं पायारगो० एवं अंगपरूवणा भाणियव्वा जहा नंदीए / जाव सुत्तत्थो खलु पढमो बीनो निजुत्तिमीसम्रो भणियो। तइयो य निरवसेसो एस विही होइ अणुयोगे // 1 // [116 प्र.] भगवन् ! श्राचारांग किसे कहते हैं ? [116 उ.] आचारांग-सूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्राचार, गोचर-विधि (भिक्षाविधि) आदि चारित्र-धर्म की प्ररूपणा की गई है। नन्दीसूत्र के अनुसार सभी अंग-सूत्रों का वर्णन जानना चाहिए, यावत् --- सुत्तत्थो खलु पढमो (गाथार्थ--) सर्वप्रथम सूत्र का अर्थ कहना चाहिए / दूसरे में नियुक्तिमिश्रित अर्थ कहना चाहिए और फिर तीसरे में निरवशेष अर्थात्- सम्पूर्ण अर्थ का कथन करना चाहिए / यह अनुयोग (सूत्रानुसार अर्थ प्रदान करने की विधि है / / 1 / / 1. (क) श्रीमद् भगवतीसूत्रम्, खण्ड 4, पृ. 214 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 868 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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