________________ 90] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राढत्तं जहा जीवाभिगमे जाव' से तेण० गोयमा ! बाहिरया णं दीव-समुद्दापुण्णा पुष्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति, संठाणतो एगविहि विहाणा, वित्थरो प्रणेगविहिविहाणा, दुगुणा दुगुणप्पमाणतो जाव अस्सि तिरियलोए प्रसंखेज्जा दीव-समुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो!। _[35 प्र.] भगवन् ! क्या लवणसमुद्र, उच्छ्रितोदक (उछलते हुए जल वाला) है, प्रस्तृतोदक (सम जलवाला) है, क्षुब्ध जल वाला है अथवा अक्षुब्ध जल वाला है ? [35 उ.] गौतम ! लवणसमुद्र उच्छितोदक है, किन्तु प्रस्तृतोदक नहीं है; वह क्षुब्ध जल वाला है, किन्तु अक्षुब्ध जल वाला नहीं है / यहाँ से प्रारम्भ करके जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, इसी प्रकार से जान लेना चाहिए; यावत् इस कारण, हे गौतम ! बाहर के (द्वीप-) समुद्र पूर्ण, पूर्णप्रमाण वाले, छलाछल भरे हुए, छलकते हुए और समभर घट के रूप में, (अर्थात्-परिपूर्ण . भरे हुए घड़े के समान), तथा संस्थान से एक ही तरह के स्वरूप वाले, किन्तु विस्तार की अपेक्षा अनेक प्रकार के स्वरूप वाले हैं; द्विगुण-द्विगुण विस्तार वाले हैं; (अर्थात्-अपने पूर्ववर्ती द्वीप से दुगुने प्रमाण वाले हैं) यावत् इस तिर्यकुलोक में असंख्येय द्वीप-समुद्र हैं / सबसे अन्त में 'स्वयम्भूरमणसमुद्र' है। हे श्रमणायुष्मन् ! इस प्रकार द्वीप और समुद्र कहे गए हैं। विवेचन-लवणादि असंख्यात द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण–प्रस्तुत सूत्र में लवणसमुद्र से लेकर असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के स्वरूप एवं प्रमाण का निरूपण किया गया है / लवणसमद्र का स्वरूप-लवणसमुद्र की जलवद्धि ऊर्ध्वदिशा में 16000 योजन से कुछ अधिक होती है, इसलिए यह उछलते हए जल वाला है:सम जल बाला (प्रस्ततोदक) नहीं / था उसमें महापातालकलशों में रही हुई वायु के क्षोभ से वेला (ज्वार) पाती है, इस कारण लवणसमुद्र का पानी क्षुब्ध होता है, अतएव वह अक्षुब्धजल वाला नहीं है / अढाई द्वीप और दो समुद्रों से बाहर के समुद्र-बाहर के समुद्रों के वर्णन के लिए मूलपाठ में जीवाभिगम सूत्र का निर्देश किया है। संक्षेप में, वे समुद्र क्षुब्धजल वाले नहीं, अक्षुब्ध जल वाले हैं, तथा वे उछलते हुए जल वाले नहीं, अपितु समजल वाले हैं, पूर्ण, पूर्ण प्रमाण, यावत् पूर्ण भरे हुए घड़े के समान हैं / लवणसमुद्र में महामेघ संस्वेदित, सम्मूच्छित होते हैं, वर्षा बरसाते हैं, किन्तु बाहर समुद्रों में ऐसा नहीं होता। बाहरी समुद्रों में बहुत-से उदकयोनि के जीव और पुद्गल उदकरूप में अपक्रमते हैं, व्युत्क्रमते हैं, च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं / इन सब समुद्रों का संस्थान समान है किन्तु विस्तार की अपेक्षा ये पूर्व-पूर्व द्वीप से दुगने-दुगने होते चले गए हैं / 1. 'जाव' पद से यह पाठ जानना चाहिए-“पवित्थरमाणा 2 बहुउप्पलपउसकुमुयनलिणसुभगसोगंधियडरीय महापुडरीयसतपत्रासहस्सपत्तकेसरफुल्लोवडया उब्भासमाणवीडया।" 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 282 (क) भगवतीसूत्र (टीकातुवादटिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 334-335 (ख) जीवाभिगमसूत्र वृत्तिसहित प्रतिपत्ति 3, पत्रांक 320-321 (ग) तत्त्वार्थसूत्र सभाष्य, प्र. 3, सू. 8 से 13 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org