________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१२] 107 विभंगे आलभियं नरि मज्झमझेणं निग्गच्छति जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं प्रवक्कमति, उत्तर० अ० 2 तिदंड-कुडियं च जहा खंदओ (स० 201 सु० 34) जाव पव्वइओ। सेसं जहा सिवस्स जाव अव्वाबाहं सोक्खं अणुहंति सासतं सिद्धा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / एक्कारसमे सए बारसमो उद्देसो समत्तो // 11-12 // ॥एक्कारसमं सयं समत्तं / / 11 / / [24] तत्पश्चात् पालभिका नगरी में शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोगों से यावत् मुद्गल परिव्राजक ने भगवान् द्वारा दिया अपनी मान्यता के मिथ्या होने का निर्णय सुन कर इत्यादि सब वर्णन (श. 11, उ. 6, सू. 27-32 के अनुसार) शिवराजर्षि के समान कहना चाहिए। ___ [मुद्गल परिव्राजक भी शिवराजर्षि के समान शंकित, कांक्षित यावत् कालुष्ययुक्त हुए, जिससे उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। [भगवान् आदिकर, तीर्थंकर, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी] यावत् सर्वदुःखों से रहित होकर विचरते] हैं; [उनके पास जाऊँ और यावत् पर्युपासना करू / इस प्रकार विचार कर] विभंगज्ञानरहित मुद्गल परिव्राजक ने भी अपने त्रिदण्ड, कुण्डिका आदि उपकरण लिये, भगवाँ वस्त्र पहने और वे पालभिका नगरी के मध्य में हो कर निकले, [जहाँ भगवान् विराजमान थे, वहाँ पाए,] यावत् उनकी पर्युपासना की। [भगवान् ने मुद्गल परिव्राजक तथा उस महापरिषद् को धर्मोपदेश दिया, यावत् इसका पालन करने से जीव प्राज्ञा के आराधक होते हैं / भगवान् द्वारा अपनी शंका का समाधान हो जाने पर मुद्गल परिव्राजक भी यावत् उत्तरपूर्वदिशा में गए और स्कन्दक की तरह (श. 2, उ. 1, सू. 34 के अनुसार) त्रिदण्ड, कुण्डिका एवं भगवाँ वस्त्र एकान्त में छोड़ कर यावत् प्रवजित हो गए। इसके बाद का वर्णन शिवराजर्षि की तरह जानना चाहिए; [यावत् मुद्गलमुनि भी पाराधक हो कर सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए 1] यावत् वे सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन-मुद्गल परिव्राजक : विभंगज्ञानरहित, शंकारहित, प्रवजित और सिद्धिप्राप्तप्रस्तुत 24 वें सूत्र में मुद्गल परिव्राजक का अपनी मान्यता भ्रान्त ज्ञात होने पर उनके शंकित आदि होने, उनका विभंगज्ञान नष्ट होने, भगवान् की सेवा में पहुँचने और शंकानिवारण होने पर प्रजित होने तथा रत्नत्रयाराधना करने तथा अन्तिम संलेखना-संथारा करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने तक का वर्णन है।' // ग्यारहवां शतक : बारहवाँ उद्देशक समाप्त / / // ग्यारहवां शतक सम्पूर्ण // 1. वियाहपण्णत्तिस्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 559 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org