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________________ 106] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नगरी में भिक्षाचर्या के लिए पधारे तथा बहुत-से लोगों में परस्पर (मुद्गल परिव्राजक को अतिशय ज्ञान-दर्शनोत्पत्ति की उपर्युक्त) चर्चा होती हुई सुनी / शेष सब वर्णन पूर्ववत् (श. 11, उ. 6, सू. 21 के अनुसार) कहना चाहिए, यावत् (भगवान् से गौतमस्वामी द्वारा पूछने पर उन्होंने इस प्रकार कहा-) गौतम ! मुद्गल परिव्राजक का कथन असत्य है / मैं इस प्रकार प्ररूपणा करता हूँ, इस प्रकार प्रतिपादन करता हूँ यावत् इस प्रकार कथन करता हूँ—“देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति तो दस हजार वर्ष की है, किन्तु इसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। इससे प्रागे देव और देवलोक विच्छिन्न हो गए हैं।" विवेचन-मुदगल परिवाजक के कथन की सत्यासत्यता का निर्णय प्रस्तुत 20 वें सूत्र में गौतमस्वामी द्वारा मुद्गल परिव्राजक के कथन की सत्यता-असत्यता के विषय में पूछे जाने पर भगवान् द्वारा दिये निर्णय का निरूपण है।' 21. अस्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दव्वाइं सवण्णाई पि अवण्णाई पि तहेब (स० 11 उ० 9 सु० 22) जाव हंता, अस्थि / [21 प्र.] भगवन् ! क्या सौधर्म-देवलोक में वर्णसहित और वर्ण रहित द्रव्य अन्योऽन्यबद्ध यावत् सम्बद्ध हैं ? इत्यादि पूर्ववत् (श. 11, उ० 6, सू० 22 के अनुसार) प्रश्न / [21 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 22. एवं ईसाणे वि। एवं जाव अच्चुए एवं गेविजविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपउभाराए वि जाव हंता, अस्थि / {22 प्र.] इसी प्रकार क्या ईशान देवलोक में यावत् अच्युत देवलोक में तथा ग्रंवेयकविमानों में और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में भी वर्णादिसहित और वर्णादिरहित द्रव्य हैं ? [22 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 23. तए णं सा महतिमहालिया जाव पडिगया। [23] तदनन्तर वह महती परिषद् (धर्मोपदेश सुन कर) यावत् वापस लौट गई। विवेचन-समस्त वैमानिक देवलोकों में वर्णादि से सहित एवं रहित द्रव्यसंबंधी प्ररूपणा--- प्रस्तुत दो सूत्रों (21-22) में सौधर्म देवलोक से लेकर अनुत्तरविमानों तक तथा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में वर्णादिसहित एवं वर्णादिरहित द्रव्यों की सम्बद्धता की प्ररूपणा की गई है तथा 23 व सूत्र में महती परिषद् के लौटने का वर्णन है। मुद्गल परिव्राजक द्वारा निर्ग्रन्थप्रवज्याग्रहण एवं सिद्धिप्राप्ति 24. तए णं आलभियाए नगरीए सिंघाडग-तिय० अवसेसं जहा सिवस्स (स० 11 उ० 9 सु० 27-32) जाव सम्वदुक्खप्पहीणे, णवरं तिदंड-कुडियं जाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवडिय 1. वियापण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 558 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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