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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३ | सम्बद्ध (जुड़े हुए) रहते हैं। इस प्रकार यावत् बीज, बीज के जीवों से व्याप्त (स्पृष्ट) होते हैं, और वे फल के जीवों के साथ सम्बद्ध रहते हैं। इससे वे आहार करते और उसे परिणमाते हैं / विवेचन-वनस्पतिकायिक मूलजीवादि से स्पृष्ट मूलादि के प्राहार के सम्बन्ध में सयुक्तिक समाधान-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. 3 और 4) में वनस्पतिकाय के मूल आदि अपने-अपने जीव के साथ स्पृष्ट-व्याप्त होते हुए कैसे आहार करते हैं ? इसका युक्तिसंगत समाधान प्रस्तुत किया गया है। वक्षादिरूप वनस्पति के दस प्रकार-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज। ___मूलादि जीवों से व्याप्त मूलादि द्वारा प्राहारग्रहण-मूलादि, अपने-अपने जीवों से व्याप्त होते हुए भी परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं --जैसे मूल पृथ्वी से, कन्द मूल से, स्कन्ध कन्द से, त्वचा स्कन्ध से शाखा त्वचा से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से, फल पुष्प से और बीज फल से सम्बद्ध-परिबद्ध होता है, इस कारण परम्परा से मूलादि सब एक दूसरे से जुड़े हुए होने से अपनाअपना आहार ले लेते हैं / और उसे परिणमाते हैं।' पालू, मूला आदि वनस्पतियों में अनन्तजीवत्व और विभिन्नजीवत्व की प्ररूपणा 5. अह भंते ! पालुए मूलए सिंगवेरे हिरिली सिरिली सिस्सिरिलो किटिया छिरिया छोरविरालिया कण्हकं वज्जकंदे सूरणकंदे खिलूडे भद्दमुस्था पिंडहलिद्दा लोहीणो हथिहमगा (थिरुगा) मुग्गकण्णी अस्सकण्णी सीहकण्णी सोहंढी मुसुढी, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते प्रणतजोवा विविहसत्ता ? हंता, गोयमा ! प्रालुए मूलए जाव अणंतजीवा विविहसत्ता। [5 प्र.] अब प्रश्न यह है 'भगवन् ! आलू, मूला, शृगबेर (अदरख), हिरिली, सिरिली, सिस्सिरिली, किट्टिका, छिरिया, छीरविदारिका, वज्रकन्द, सूरणकन्द, खिलूड़ा, (आर्द्र-) भद्रमोथा, पिंडहरिद्रा (हल्दी की गांठ), रोहिणी, हुथीहू, थिरुगा, मुद्गकर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिहण्डो, मुसुण्ढी, ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ हैं, क्या वे सब अनन्त जीववाली और विविध (पृथक्-पृथक) जीववाली हैं। [5 उ.J हाँ गौतम ! आल, मूला, यावत् मुसुण्ढी; ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ हैं, वे सब अनन्तजीव वाली और विविध (भिन्न-भिन्न) जीववाली हैं / विवेचन-पाल, मूला प्रादि वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व और विभिन्न जीवत्व की प्ररूपणाप्रस्तुत पंचम सूत्र में आलू, मूला आदि तथा इसी प्रकार की भूमिगत मूलवाली अनन्तकायिक वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व तथा पृथक् जीवत्व की प्ररूपणा की गई है। 'अनन्त जीवा विविहसत्ता' की व्याख्या--आलू आदि अनन्तकाय के प्रकार लोकरूढ़िगम्य हैं, भिन्न-भिन्न देशों में ये उन-उन नामों से प्रसिद्ध हैं, इनमें अनन्त जीव हैं, तथा विविध सत्त्व (पृथक चेतनावाले) हैं अथवा वर्णादि के भेद से ये विविध प्रकार के हैं, अथवा एक स्वरूप या एककायिक होते हुए भी इन में अनन्त जीवत्व है, इस दृष्टि से विविध यानी विचित्र कर्मों के कारण 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 300 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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