________________ 176] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र.] भगवन् ! यदि वे (नागकुमार) संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं, या असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से ? [4 उ.] गौतम ! वे संख्येयवर्षायुष्क एवं असंख्येयवर्षायुष्क (दोनों प्रकार के) संशी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं / __विवेचन --निष्कर्ष-नागकुमार, असुर कुमार की तरह संख्यातवर्ष की और असंख्यातवर्ष की आयु वाले दोनों प्रकार के संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं / नागकुमारों में उत्पन्न होनेवाले असंख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उपपात-परिमारणादि वीस द्वारों की प्ररूपरगा 5. असंखिज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए नागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्विती० ? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएस, उक्कोसेणं देसूणदुपलिनोवमट्टितोएसु उववज्जेज्जा। [5 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो नागकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? [5 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है। 6. ते णं भंते ! जीवा०? अवसेसो सो चेव असरकुमारेस् उववज्जमाणस्स गभगो भाणियन्वो जाव भवाएसो त्ति; कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पृथ्वकोडी दहि वाससहस्सेहि अभहिया, उक्कोसेणं देसूणाई पंच पलिओवमाइं, एवतियं० जाव करेज्जा। [पढमो गमयो] / [6 प्र.] भगवन् ! बे जीव (नागकुमार) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के समान यहाँ भी भवादेश तक गमक कहना चाहिए / काल की अपेक्षा से-जघन्य दस हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटिवर्ष और उत्कृष्ट देशोन पांच पल्योपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 5-6 प्रथम गमक] 7. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं नागकुमारदिति संवेहं च जाणेज्जा / [बीमो गमयो / [7] यदि वह जघन्यकाल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिये भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ नागकुमारों की स्थिति और संवेध जानना चाहिए। [सू. 7, द्वितीय गमक] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org