________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [119 [21] तदनन्तर (प्राहारसहित पौषध पारित करने के बाद) वे सब श्रमणोपासक, (दूसरे दिन) प्रातःकाल यावत सर्योदय होने पर स्नानादि (नित्यकृत्य) करके यावत शरीर को अलंकृत करके अपने-अपने घरों से निकले और एक स्थान पर मिले। फिर सब मिल कर पूर्ववत् भगवान की सेवा में पहुँचे, यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचनप्रस्तुत दो सूत्रों (20-21) में शंख का और श्रमणोपासकों का भगवान् की सेवा में पहुँचने का वर्णन है। अभिगमो नत्थि : आशय-मूलपाठ में अंकित 'अभिगम कथन नहीं' का तात्पर्य यह है, कि शंख श्रमणोपासक अपने शुभ संकल्पानुसार पौषधव्रत में ही भगवान् की सेवा में पहुँचा था, इसलिए उसके पास सचित्त द्रव्य, छत्रादि राजसी ठाठबाट, उपानह, शस्त्र आदि अभिगम करने योग्य कोई पदार्थ नहीं थे, और शेष दो अभिगम (देखते ही प्रणाम करना, और मन को एकाग्र करना) तो उसके संकल्प के अन्तर्गत थे ही, इसलिए शंख के लिए अभिगम करने का प्रश्न ही नहीं था।' ___ 'एगयओ मिलाइत्ता' : तात्पर्य-एक स्थान पर सभी श्रमणोपासकों के मिलने के पीछे 5 मुख्य रहस्य निहित हैं—(१) सबमें एकरूपता रहे, (2) सबमें एकवाक्यता रहे, (3) सहभोजन की तरह सहधर्मिता रहे, (4) परस्पर सहधर्मी-वात्सल्य बढ़े और (5) धर्माचरण में एक दूसरे का स्नेहसह्योग होने से यात्मशक्ति बढ़े / उपनिषद् में भी इस प्रकार का एक श्लोक मिलता है। 'जहा पढम'-इस वाक्य का भावार्थ यह है कि जैसे उन श्रमणोपासकों का भगवान की सेवा में पहुँचने का सू. 7 में प्रथम निर्गम कहा था, वैसे ही यहाँ (द्वितीय निर्गम) भी कहना चाहिए / कठिनशब्दार्थ-पुस्वरत्तावरत्तकालसमयंसि--रात्रि का पूर्व भाग व्यतीत होने पर पिछली रात्रि का काल प्रारम्भ होने के समय में / धम्मजागरियं धर्म के लिए अथवा धर्मचिन्तन की दृष्टि से जागरणा / संपेहेइ—पर्यालोचन करता है, विचार करता है। भगवान् का उपदेश और शंख श्रमरणोपासक को निन्दादि न करने को प्रेरणा 22. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे घ० धम्मकहा जाव प्राणाए आराहए भवति / [22] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों और उस महती महापरिषद् को धर्मकथा कही / यावत्-धर्मदेशना दी / वे प्राज्ञा के आराधक हुए (यहाँ तक कथन करना / ) 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 (ख) भगवती. भा. 4 (हिन्दीविवेचन) पृ. 1978 (ग) पांच अभिगमों के सम्बन्ध में देखोभगवती. श, 2, उ. 5, खण्ड 1, पृ. 216 2. 'सह नाववतु सह नौ भुनक्त, सहवीर्य करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै // ' .-उपनिषद् 3. भगवतो. अ. बत्ति, पत्र 555 4. वही, पत्र 555 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org