________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 257 38. सिद्धा णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! गाणी, नो अण्णाणी / नियमा एगनाणी केवलनाणी / [38 प्र.) भगवन् ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [38 उ.] गौतम ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं / वे नियमतः एक-केवलज्ञान वाले हैं। विवेचन--ौधिक जीवों, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों एवं सिधों में ज्ञान और प्रज्ञान की प्ररूपणा–प्रस्तुत दस सूत्रों (सू-२६ से 38 तक) में प्रोधिक जीवों, नरयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में पाये जाने वाले ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा की गई है / नैरयिकों में तीन ज्ञान नियमतः, तीन अज्ञान भजनातः-सम्यग्दृष्टि नैरयिकों में भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है, इसलिए वे नियमतः तीन ज्ञान वाले होते हैं। किन्तु जो अज्ञानी होते हैं, उनमें कितने ही दो अज्ञान वाले होते हैं, जब कोई असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नरक में उत्पन्न होता है, तब उसके अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इस अपेक्षा से नारकों में दो अज्ञान कहे गए हैं। जो मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय नरक में उत्पन्न होता है, तो उसको अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है / अत: इस अपेक्षा से नारकों में तीन अज्ञान कहे गए हैं। तीन विकलेन्द्रिय जीवों में दो ज्ञान--द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ने या तिर्यञ्च ने पहले आयुष्य बांध लिया है, वह उपशम-सम्यक्त्व का वमन करता हुआ उनमें (द्वी-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों में) उत्पन्न होता है / उस जीव को अपर्याप्त दशा में सास्वादनसम्यग्दर्शन होता है, जो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह प्रावलिका तक रहता है; तब तक सम्यग्दर्शन होने के कारण वह ज्ञानी रहता है, उस अपेक्षा से विकलेन्द्रियों में दो ज्ञान बतलाए हैं / इसके पश्चात् तो वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाने से अज्ञानी हो जाता है।' गति आदि पाठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-अज्ञानी-प्ररूपरणा 39. निरयगतिया णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी? गोयमा ! नाणो वि, अण्णाणी वि / तिणि नाणाई नियमा, तिणि प्रमाणाई भयणाए / [39 प्र.] भगवन् ! निरयगतिक (नरकगति में जाते हुए) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [39 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, वे नियमतः तीन ज्ञान वाले हैं, और जो अज्ञानी हैं, वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। 40. तिरियर्गातया णं भंते ! जीधा कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा। [40 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चगतिक ( तिर्यञ्चगति में जाते हुए ) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 345 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org