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________________ बिइए सन्निपंचेंदियमहाजुम्मसए : पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय संजीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवे उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्याविशिष्ट संज्ञीपंचेन्द्रियों के उपपातादि की प्ररूपरणा 1. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेदिया णं भंते ! कत्रो उववज्जंति ? तहेव जहा पढमुद्देसनो सन्नीणं, नवरं बंधो, वेनो, उदई, उदोरणा, लेस्सा, बंधगा, सण्णा, कसाय, वेदबंधगा य एयाणि जहा बंदियाणं काहलेस्साणं। वेदो तिविहो, प्रवेयगा नथि / संचिढणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमम्भहियाइं / एवं ठिती वि, नवरं ठितीए 'अंतोमुत्तमम्भहियाई' न भण्णंति / सेसं जहा एएसि चेव पढमे उद्देसए जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 40.2 // 1 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! संजी के प्रथम उद्देशक के अनुसार इनकी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेदबंधक, इन सभी का कथन द्वीन्द्रियजीव-सम्बन्धी कथन के समान है। कृष्णलेश्यी संज्ञी के तीनों वेद होते हैं, वे अवेदी नहीं होते / उनकी संचिट्ठणा जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तम हर्त अधिक तेतीस सागरोपम की होती है और उनकी स्थिति भी इसी प्रकार होती है। स्थिति में अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिए। शेष प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। इसी प्रकार सोलह युग्मों का कथन समझ लेना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 2 / 1 2. पढमसमयकाहलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसग्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? 0 जहा सन्निपंचेंदियपढमसमयुद्देसए तहेव निरवसेसं। नवरं ते गं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता, कण्हलेस्सा / सेसं तं चेव / एवं सोलससु वि जुम्मेसु / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥४०२॥२॥ 2 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृष्णलेश्यायुक्त कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि वाले संज्ञीपंचे. न्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! इनकी वक्तव्यता प्रथमसमयोत्पन्न संज्ञीपंचेन्द्रियों के उद्देशक के अनुसार जाननी चाहिए / विशेष यह है कि-- [प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [उ.] हाँ, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं / शेष पूर्ववत् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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