________________ 182] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से) सुसज्जित की / सुसज्जित करके जहाँ कूणिक राजा था, वहाँ उसके पास पाए और करबद्ध होकर उन्होंने कूणिक राजा को उसकी उक्त प्राज्ञा वापिस सौंपी-आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न हो जाने की सूचना दी। 8. तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवा,, 2 चा मज्जणघरं अणुप्पविसति, मज्जण० 2 हाते कतबलिकम्मे कयकोतुयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धवम्मियकवए उत्पीलियसरासणपट्टिए पिणद्धगेवेज्जविमलवरबद्धचिधपट्ट गहियायुहप्पहरणे सकोरेटमल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं च उचामरवालवीइतंगे मंगलजयसद्दकतालोए एवं जहा उववातिए जाब उवागच्छित्ता उदाइं हस्थिरायं दुरूढे / [8] तत्पश्चात् कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया, उसने स्नानगृह में प्रवेश किया / फिर स्नान किया, स्नान से सम्बन्धित मर्दनादि बलिकर्म किया, फिर प्रायश्चित्तरूप (विघ्ननाशक) कौतुक (मषी-तिलक आदि) तथा मंगल किये / समस्त प्राभूषणों से विभूषित हुना। सन्नद्धबद्ध (शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित) हुना, लोहकवच को धारण किया, फिर मुड़े हुए धनुर्दण्ड को ग्रहण किया / गले के आभूषण पहने और योद्धा के योग्य उत्तमोत्तम चिह्नपट बांधे। फिर आयुध (गदा प्रादि शस्त्र) तथा प्रहरण ( भाले आदि शस्त्र) ग्रहण किये। फिर कोरण्टक पुष्पों की माला सहित छत्र धारण किया तथा उसके चारों ओर चार चामर ढुलाये जाने लगे। लोगों द्वारा मांगलिक एवं जय-विजय शब्द उच्चारण किये जाने लगे। इस प्रकार कुणिक राजा औपपातिकमूत्र में कहे अनुसार यावत् उदायो नामक प्रधान हाथो पर आरूढ हुआ। 6. तए णं से कूणिए नरिदे हारोत्थयसुकयरतियवच्छे जहा उववातिए जाव सेयवरचामराहि उद्धव्वमाणीहिं उधुव्वामणोहि हय-गय-रह-पवरजोहकलिताए चातुरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिडे महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ, लेणेव उवागच्छित्ता महासिलकंटयं संगाम पोयाए, पुर प्रो य से सक्के देविवे देवराया एग महं अभेज्जकवयं बहरपडिरूवगं विउम्वित्ताणं चिट्ठति / एवं खलु दो इंदा संगाम संगामेंति, तं जहा-देविदे य मणुइंदे य, एगहत्थिणा वि णं पनू कूणिए राया पराजिणित्तए / [6] इसके बाद हारों से आच्छादित वक्षःस्थल वाला कणिक जनमन में रति-प्रीति उत्पन्न करता हुआ औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् श्वेत चामरों से बार-बार बिंजाता हुअा, अश्व, हस्ती, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत्त (घिरा हुआ), महान् सुभटों के विशाल समूह से व्याप्त (परिक्षिप्त) कूणिक राजा, जहाँ महाशिलाकण्टक संग्राम (होने जा रहा) था, वहाँ प्राया। वहाँ पाकर वह महाशिलाकण्टक संग्राम में (स्वयं) उतरा। उसके आगे देवराज वेन्द्र शक्रबजप्रातरूपक (वन के समान) अभद्य एक महान कवच को विकूवणा करके खड़ा हआ। इस प्रकार (उस युद्धक्षेत्र में मानो) दो इन्द्र संग्राम करने लगे; जैसे कि-एक देवेन्द्र (शक) और दूसरा मनुजेन्द्र (कणिक राजा) / अब कणिक राजा केवल एक हाथी से भी (शत्रुपक्ष की सेना को) पराजित करने में समर्थ हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org