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________________ 100 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. तए णं ते समणोवासगा इसिमपुत्तस्स समणोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियंति नो रोएंति, एयम? असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया / [5] तदनन्तर उन श्रमणोपासकों ने ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक के द्वारा इस प्रकार कही हुई यावत् प्ररूपित की हुई इस बात पर न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न रुचि ही की; उपर्युक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करते हए वे श्रमणोपासक जिस दिशा से पाए थे, उसी दिशा में चले गए। विवेचनऋषिभद्रपुत्र द्वारा देवस्थिति सम्बन्धी प्ररूपणा पर अश्रद्धालु श्रमणोपासक-प्रस्तुत 5 सूत्रों में (1.5) में वर्णन है कि ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपसक द्वारा प्ररूपित देवस्थिति पर अन्य श्रमणोपासकों ने विश्वास नहीं किया / __ कठिन शब्दों का अर्थ---एगयनो समुवागयाणं-एकत्र, आए हुए / सहियाणं समुपविद्वाणंएक साथ समुपस्थित या समुपविष्ट = एक जगह आसन जमाए हुए / सन्निसन्नाणं- पास-पास बैठे हुए / मिहो कहासमुल्लावे-परस्पर वार्तालाप / देवद्धितिगहियष्ट-देवों की स्थिति के विषय में परमार्थ--रहस्य का ज्ञाता / भगवान द्वारा समाधान से सन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्रपुत्र से क्षमायाचना 6. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [6] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् पालभिका नगरी में पधारे, यावत् परिषद् ने उनकी पर्युपासना की। 7. तए णं ते समणोवासगा इमोसे कहाए लट्ठा समाणा हट्ठा एवं जहा तुगिउद्देसए (स०२ उ० 5 सु० 14) जाव पज्जुवासंति / 7 (श. 2, उ. 5, सू. 14 में वर्णित) तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान पालभिका नगरी के वे (ऋषिभद्रपुत्र के समाधान के प्रति अश्रद्धालु) श्रमणोपासक इस बात (भगवान् के पदार्पण) को सुन (जान) कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान् को पर्युपासना करने लगे। 8. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा जाव आणाए आराहए भवति / . [8 तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमण,पासकों को तथा उस बड़ी परिषद् को धर्मकथा कही, यावत् वे आज्ञा के अाराधक हुए / विवेचन—आलभिका में भगवत्पदार्पण एवं असन्तुष्ट श्रमणोपासक सन्तुष्ट प्रस्तुत तीन सूत्रों (6-7-8) में तीन घटनाओं का उल्लेख किया गया है—(१) पालभिका नगरी में भगवान् का 1. वियाहपषणत्तिसत्तं (मुलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 555 2. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 552 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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