________________ 284] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। शुक्ललेश्या वाले जीवों का कथन सलेश्य जीवों की तरह करना चाहिए / अलेश्य जीव सिद्ध होते हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / १३-कषायद्वार--सकषायी या क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवों में ज्ञान-प्रज्ञानप्ररूपणा सेन्द्रिय के सदृश है, अर्थात्-उनमें केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान भजना से होते हैं / अकषायो छद्मस्थ-वीतराग और केवली दोनों होते हैं / छद्मस्थ वीतराग (11-12 गुणस्थानवर्ती) में प्रथम के चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और केवली (13-14 गुणस्थानवर्ती) में एकमात्र केवलज्ञान ही पाया जाता है। इसीलिये अकषायी जीवों में पांच ज्ञान भजना से बताए गए हैं / १४-वेदद्वार-सवेदक पाठवें गुणस्थान तक के जीव होते हैं / उनका कथन सेन्द्रिय के समान है, अर्थात्- उनमें केवलज्ञान को छोड़ कर शेष चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / अवेदक (वेदरहित) जीवों में ज्ञान ही होता है, अज्ञान नहीं / नौवें अनिवृत्तिबादर नामक गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अवेदक होते हैं। उनमें से बारहवें गूणस्थान तक के जीव छदमस्थ होते हैं, अत: उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) भजना से पाए जाते हैं. तथा तेरहवेंचौदहवें गुणस्थानवी जीव केवली होते हैं, इसलिए उनके सिर्फ एक पंचम ज्ञान-केवलज्ञान होता है, इसी दृष्टि से कहा गया है कि 'अवेदक में पांच ज्ञान पाए जाते हैं।' १५-याहारकद्वार-यद्यपि प्राहारक जीव में ज्ञान-अज्ञान का कथन कषायी जीवों के समान (चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान भजना से) बताया गया है, तथापि केवलज्ञानी भी आहारक होते हैं, इसलिए आहारक जोवों में भजना से पांच ज्ञान अथवा तीन अज्ञान कहने चाहिए। मन:पर्यवज्ञान आहारक जीवों को ही होता है। इसलिए अनाहारक जीवों में मनःपर्यवज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / विग्रहगति, केवली-समुद्घात और अयोगीदशा में जीव अनाहारक होते हैं। शेष अवस्था में जीव आहारक होते हैं। अनाहारक जीवों को प्रथम के तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान विग्रहगति में होते हैं / अनाहारक केवली को केवलीसमुद्घातदशा में या अयोगी दशा में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / इसो दृष्टि से अनाहारक जोवों में चार ज्ञान (मनःपर्यवज्ञान को छोड़कर) और तीन अज्ञान भजना से कहे गए हैं। सोलहवें विषयद्वार के माध्यम से द्रव्यादि की अपेक्षा ज्ञान और अज्ञान का निरूपण 144. प्राभिणिबोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासतो चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो / बवतो णं प्राभिणिबोहियनाणी प्रादेसेणं सव्वदव्वाई जाति पासति / खेत्ततो प्राभिणिबोहियणाणी प्रादेसेणं सव्वं खेत्तं जाणति पासति / एवं कालतो वि / एवं भावनो वि / [144 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय कितना व्यापक कहा गया है ? - [114 उ.] गौतम ! वह (आभितिबोधिक ज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का बताया गया है / यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / द्रव्य से आभिनिबोधिक ज्ञानी आदेश (सामान्य) से सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है, क्षेत्र से प्राभिनिबोधिकज्ञानी सामान्य-(रूप) से सभी क्षेत्र को जानता और देखता है, इसी प्रकार काल से भी और भाव से भी जानना चाहिए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 355, 356 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org