________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [257 अप्रशस्त दूसरी लेश्या के रूप में परिणत होकर उस लेश्या वाले नारकों में उत्पत्ति का सकारण प्रतिपादन किया गया है। अप्रशस्त-प्रशस्त लेश्या-परिवर्तना में कारण : संक्लिश्यमानता-विशुद्धयमानता-ही है। जब प्रशस्त लेश्यास्थान अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे संक्लिश्यमान तथा अप्रशस्त लेश्यास्थान जब विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे विशुद्धयमान कहलाते हैं। इसलिए प्रशस्त-अप्रशस्त लेश्याओं की प्राप्ति में संक्लिश्यमानता-विशुद्धचमानता कारण समझनी चाहिए।' / तेरहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / ---- ----. . .. -- .. . . - - - ... - --- 1. (अ) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600-601, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पत्र 2158 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org