________________ पन्द्रहवां शतक [525 अर्थात् चारित्र अंगीकार करने के समय से लेकर मरण-पर्यन्त निरन्तर विधिपूर्वक नितिचार संयम का परिपालन करना (चारित्र को) आराधना कही गई है।' चारित्रप्राप्ति के अठारह भवों को संगति-विमलवाहन राजा (गोशालक के जीव) के चारित्रप्राप्ति (प्रतिपत्ति) के भव, अग्निकुमार देवों को छोड़ कर भवनपति और ज्योतिष्कदेवों के विराधनायुक्त भत्र दस कहे हैं, तथा अविराधनायुक्त (पाराधनायुक्त) भव सौधर्मकल्प से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक सात और पाठवाँ सिद्धिगमन रूप अन्तिम भव; यो 8 भव होते हैं। अर्थात्गोशालक के विराधित और अविराधित दोनों को मिलाने से 18 भव होते हैं, किन्तु सिद्धान्त यह है कि 'अट्ठभवाउ चरित्ते' इस कथनानुसार चारित्रप्राप्ति पाठ भव तक ही होती है। फिर इस पाठ को संगति कैसे होगो ? इस विषय में समाधान इस प्रकार है कि यहाँ दस भव जो चारित्र-विराधना के बतलाए हैं, वे द्रव्यचारित्र की अपेक्षा से समझना चाहिए / अर्थात-उन भवों में उसे भावचारित्र की प्राप्ति नहीं हुई थी। चारित्र-क्रिया की विराधना होने से उसे विराधक बतलाया है। जैसेअभव्यजीव चारित्र-क्रिया के आराधक होकर ही नौ अवेयक तक जाते हैं, किन्तु उन्हें वास्तविक (भाव) चारित्र को प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार यहाँ भी दस भवों में चारित्र को प्राप्ति, द्रव्यचारित्र की प्राप्ति समझनी चाहिए। इस प्रकार समझने से कोई भी सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं पाती / यही कारण है कि चारित्र-विराधना के कारण उसकी असुरकुमारादि देवों में उत्पत्ति हुई वैमानिकों में नहीं। कठिन-शब्दार्थ सत्थवझे-शस्त्रवध्य-शस्त्र से मारे जाने योग्य / दाहवक्कतीए-दाहज्वर की वेदना से / खहयर-विहाणाई-खेचर जीवों के विधान-भेद 1 अगसय-सहस्सखुलो-अनेक लाख वार। एगखुराणं—एक खुर वाले अश्व आदि में। दुखुराण-दो खुर वाले गाय आदि में / गंडीपयाणं---ण्डोपदों में हाथी आदि में / सणहप्पयाणं-सिंह आदि सनख (नखसहित) पैर (पंजे) वाले जीवों में। रुक्खाणं-वक्षों में। वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-एक अस्थिक (गुठली) वाले जैसे प्राम, नीम आदि, और बहुबीजक (अनेक बीज वाले। जैसे-अस्थिक, तिन्दुक आदि / उस्सन्नं-- बहुलता से, अधिकांश रूप से, प्रायः / अंतोख रियत्ताए–नगर के भीतर वेश्या (विशिष्ट वेश्या) के रूप में / बाहिं खरियताए-नगर के बाहर की वेश्या (सामान्य वेश्या) के रूप में। उस्साणं---- अवश्याय-ग्रोस के जीवों में / दारियत्ताए-कन्या के रूप में। पडिरूवएणं सुक्केणं.-.---अनुरूप (उचित) शुल्क (द्रव्यदान) से / तेल्लकेला-तेल का भाजन (कुप्पी)। चेलपेडा-वस्त्र की पेटी-सन्दूक / कुलघरं--पितृगह को। णिज्जमाणी-ले जाई जाती हुई। दाहिणिल्लेसु–दक्षिण दिशा के, दक्षिणनिकाय के / केवलं बोहि---सम्यक्त्व / विराहिय-सामग्णे-जिसने चारित्र की विराधना को।' गोशालक का अन्तिम भव-महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ केवली के रूप में मोक्षगमन 148. से णं ततोहितो अणंतरं चयं चयित्ता महाविदेहे वासे जाइं इमाइ कुलाई भवंतिअड्डाइं जावं अपरिभूयाई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिति / एवं जहा उववातिए 1. वही, पत्र 695 2. वही, पत्र 695 3. वही, पत्र 693, 695 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org