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________________ 386 [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र औदयिकादि छह भावों का अतिदेशपूर्वक प्ररूपण . . 47. कतिविधे णं भंते ! णामे पन्नत्ते ? गोयमा ! छविहे नामे पन्नत्ते, तं जहा–उदइए जाव सन्निवातिए / [47 प्र.] भगवन् ! नाम (भाव) कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [47 उ.) गौतम ! नाम छह प्रकार के कहे गए हैं। यथा---प्रौदयिक (से लेकर) यावत् सानिपातिक। 48. से कि तं उदइए नामे ? उदइए गामे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-उदए य, उदयनिष्फन्ने य। एवं जहा सत्तरसमसते पढमे उद्देसए (स० 17 उ०१ सु० 26) भावो तहेव इह वि, नवरं इमं नामनाणतं / सेसं तहेव जाव सन्निवातिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिक / // पंचवीसहमे सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो // 25-5 // [48 प्र.] भगवन् ! वह औदयिक नाम (भाव) किस (कितने) प्रकार का है ? [48 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा है / यथा----उदय और उदयनिष्पन्न / सत्रहवें शतक के प्रथम उद्देशक (सू. 26) में जैसे भाव के सम्बन्ध में कहा है, वैसे ही यहाँ कहना / विशेष यही है कि वहाँ 'भाव' के सम्बन्ध में कहा है, जबकि यहाँ 'नाम' के विषय में है / शेष सब यावत् सानिपातिक-पर्यन्त उसी प्रकार कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-औदयिकादि छह भावों को अतिदेशपूर्वक प्ररूपणा--नमन, नाम, परिणाम, भाव आदि शब्द एकार्थक (पर्यायवाची) हैं। भाव 6 हैं--(१) प्रौदयिक, (2) प्रौपशमिक, (3) क्षायोपशमिक, (5) पारिणामिक और (6) सान्निपातिक / वहाँ भाव, यहाँ नाम-भगवतीसूत्र के ही १७वें शतक, प्रथम उद्देशक के २६वें सूत्र में औदयिक प्रादि का 'भाव' शब्द से वर्णन है, जबकि यहाँ 'नाम' शब्द के रूप में। वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है।' // पच्चीसवाँ शतक : पंचम उद्देशक // 1. (क) भगवती. शतक 17, उ. 1, सू. 29, पृ. 32 (गुजराती अनुवाद) (ख) भगवती. अ. वति, पत्र 890 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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