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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 8] विवेचन --मावितात्मा अनगार को साम्परायिक क्रिया क्यों नहीं लगती? जिस भावितात्मा अनगार के क्रोधादि कषाय नष्ट हो गये हैं, उसके पैर के नीचे पाकर यदि कोई जन्तु अकस्मात् मर जाता है तो उसे ईपिथिकी क्रिया ही लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं, क्योंकि साम्परायिकी सकपायी जीवों को लगती है, अकषायो को नहीं। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है'सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयो / ' पुरओ दुहमओ : विशेषार्थ : पुरमो प्रागे-सामने, दुहनो-पीठ पीछे और दोनों पार्श्व (अगल बगल) में। भगवान् का जनपद-विहार, राजगृह में पदार्पण और गुणशील चैत्य में निवास 3. तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जाव विहरइ / [3] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बाहर के जनपद में यावत् विहार कर गए / 4. तेगं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पुढविसिलावट्टए।। [4] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर में (गुणशीलक नामक चैत्य था) यावत् पृथ्वी शिलापट्ट था। 5. तस्स णं गुणसिलस्स चेतियस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसति / [5] उस गुणशीलक उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथिक निवास करते थे। 6. तए णं समणे भगवं महावीरे जाब समोसढे जाव परिसा पडिगता / [6] उन दिनों में (एक बार) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् (धर्मोपदेश श्रवण कर, बन्दना करके) वापिस लौट गई। विवेचन -भगवान का मुख्य रूप से विचरणक्षेत्र, निवासस्थान और पट्ट आदि---भगवान् का मुख्यतया विचरणक्षेत्र उन दिनों राजगृह नगर था। भगवान् वहाँ गुणशीलक उद्यान में निवासकरते थे और मुख्य रूप से पृथ्वीशिला के बने हुए पट्ट पर विराजते थे। देवों द्वारा समवसरण की रचना की जाती थी। भगवान् समवसरण में विराज कर धर्मोपदेश देते थे। अन्यतीथिकों द्वारा श्रमणनिर्ग्रन्थों पर हिंसापरायणता, असंयतता एवं एकान्तबालत्व के प्राक्षेप का गौतमस्वामी द्वारा समाधान, भगवान् द्वारा उक्त यथार्थ उत्तर की प्रशंसा 7. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती नामं प्रणगारे जाव उड्ढंजाणू जाब विहरइ / [7] उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (पट्टशिष्य) 1. (क) भगवती. अ. वति, पत्र 754 (ख) भगवनी. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी) ए. 2736-2737 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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