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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [ 57 विवेचन-चारों गतियों के जीवों का संसार संस्थानकाल : भेद-प्रभेद एवं अल्पबहत्व—प्रस्तुत पांच सूत्रों (13 से 17 तक) में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों प्रकार के जीवों के संसारसंस्थानकाल, उसके भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / संसारसंस्थानकाल सम्बन्धी प्रश्न का उदमव क्यों-किसी को मान्यता है कि पशु मर कर पशु ही होता है, और मनुष्य मर कर मनुष्य, बह देव या नारक नहीं होता। जैसे-गेहूँ से गेहूँ ही उत्पन्न होता है, चना नहीं / हाँ, अच्छी-बुरी भूमि के मिलने से गेहूँ अच्छा-बुरा हो सकता है, इसी प्रकार अच्छे-बुरे संस्कारों के मिलने से मनुष्य अच्छा-बुरा भले ही हो जाए; किन्तु रहता है, मनुष्य हो / इस प्रकार को मान्यतानुसार अनादिभवों में भी जोव एक ही प्रकार से रहता है / इस भ्रान्तमत का निराकरण करने हेतु गोतम स्वामी ने यह प्रश्न उठाया है कि यह जीव अनादिकाल से एक योनि से दूसरो योनि में भ्रमण कर रहा है, तो अतोतकाल में जोव ने कितने प्रकार का संसार बिताया है ? ___ संसारसंस्थानकाल–संसार का अर्थ है—एक भव (जन्म) से दूसरे भव में संसरण-गमनरूप क्रिया / उसको संस्थान-स्थिर रहने रूप क्रिया तथा उसका काल (अवधि) संस्थानकाल है। अर्थात्--यह जीव अतीतकाल में कहाँ-कहाँ किस-किस गति में कितने काल तक स्थित रहा ? यही गौतमस्वामी के प्रश्न का प्राशय है / संसारसंस्थान न माना जाए तो-अगर भवान्तर में जीव की गति और योनि नहीं बदलतो, तब तो उसके द्वारा किये हुए प्रकृष्ट पुण्य और प्रकृष्ट पाप निरर्थक हो जाएंगे। शुभ कर्म करने पर भी पशु, पशु ही रहे और करोड़ों पार कर्म करने पर भी मनुष्य, मनुष्य ही बना रहे तो उनके पुण्य और पाप कर्म का क्या फल हुना? ऐसा मानने पर मुक्ति कदापि प्राप्त न हो सकेगी, क्योंकि जो जिस गति या योनि में है, वह वहाँ से आगे कहीं न जा सकेगा; फलत: मुक्ति के लिए किये जाने वाले तपजप-ध्यान आदि अनुष्ठान निष्फल ही सिद्ध होंगे / इसीलिए भगवान् ने बताया कि जीव चार प्रकार के संसार में संस्थित रहा है, कभी नारक, कभी तिर्यञ्च, कभी देव और कभी मनुष्य योनि में इस जीव ने समय बिताया है / त्रिविधिसंसार संस्थानकाल–भगवान् ने संसारसंस्थानकाल तीन प्रकार का बताया है-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल / अशून्यकाल-श्रादिष्ट (वर्तमान में नियत अमुक) समय वाले नारकों में से एक भी नारक जब तक मर कर नहीं निकलता और न कोई नया जन्म लेता है, तब तक का काल अशून्यकाल है। अर्थात्-अमुक वर्तमानकाल में सातों नरकों में जितने भी जीव विद्यमान हैं, उनमें से न कोई जीव मरे, न ही नया उत्पन्न हो, यानी उतने के उतने हो जोव जितने समय तक रहें, उस समय को नरक की अपेक्षा प्रशून्यकाल कहते हैं। मिश्रकाल-वर्तमानकाल के इन नारकों में से एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से निकलते-निकलते जब तक एक भी नारक शेष रहे, अर्थात्-विद्यमान नारकों में से जब एक का निकलना प्रारम्भ हुआ, तब से लेकर जब तक नरक में एक नारक शेष रहा, तब तक के समय को नरक की अपेक्षा मिथकाल कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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