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________________ 5] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र शून्यकाल-वर्तमानकाल के समादिष्ट (नियत) नारकों में से समस्त नारक नरक से निकल जाएँ, एक भी नारक शेष न रहे, और न ही उनके स्थान पर सभी नये नारक पहुँचें तब तक का काल नरक की अपेक्षा शून्यकाल कहलाता है। तिर्यचयोनि में शून्यकाल नहीं है, क्योंकि तिर्यञ्चयोनि में अकेले वनस्पति काय के ही जीव अनन्त हैं, वे सबके सब उसमें से निकलकर नहीं जाते / शेष तीनों गतियों में तीनों प्रकार के संसार संस्थानकाल हैं। तीनों कालों का अल्पबहत्व-प्रशून्यकाल अर्थात विरहकाल की अपेक्षा मिश्रकाल को अनन्तगुणा इसलिए कहा कि अशून्यकाल तो सिर्फ बारह मुहूर्त का है, जब कि मिश्रकाल वनस्पतिकाय में गमन की अपेक्षा अनन्तगुना है। नरक के जीव जब तक नरक में रहें, तभी तक मिश्रकाल नहीं, वरन् नरक के जीव नरक से निकलकर वनस्पतिकाय आदि तिर्यञ्च, तथा मनुष्य, आदि गतियोंयोनियों में जन्म लेकर फिर नरक में प्रावें तब तक का काल मिश्रकाल है / और शून्यकाल मिश्रकाल से भी अनन्तगुणा इसलिए कहा गया है कि नरक के जीव नरक से निकल कर वनस्पति में आते हैं, जिसकी स्थिति अनन्तकाल की है। तिर्यञ्चों को अपेक्षा प्रशून्यकाल सबसे कम है। संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट विरहकाल 12 मुहूर्त का, तीन विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यचपंचेन्द्रिय का अन्तर्मुहूर्त का, पंचस्थावर जीवों में समय-समय में परस्पर एक दूसरे में असंख्यजीव उत्पन्न होते हैं, अत: उनमें विरहकाल नहीं है।'' अन्तक्रिया सम्बन्धी-चर्चा 18. जीवे गं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा? गोयमा ! अस्थगतिए करेज्जा, अत्थेगतिए नो करेज्जा। अंतकिरियापदं नेयन्वं / 18. प्र. हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? [18. उ.] गोतम ! कोई जोव अन्तक्रिया करता है, कोई जीव नहीं करता / इस सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र का अन्तक्रियापद (२०वाँ पद) जान लेना चाहिए। विवेचन–अन्तक्रिया सम्बन्धी प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में अन्तक्रिया के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। __ अन्तक्रिया-जिस क्रिया के पश्चात् फिर कभी दूसरी क्रिया न करनी पड़े वह, अथवा को का सर्वथा अन्त करने वालो क्रिया अन्तक्रिया है / आशय यह है कि समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षप्राप्ति की क्रिया हो अन्तक्रिया है। निष्कर्ष यह है कि भव्य जीव हो मनुष्यभव पाकर अन्तक्रिया करता है। असंयतभव्य द्रव्यदेव आदि सम्बन्धी विचार 16. अह भंते ! प्रसंजयवियदवदेवाणं 1, अविराहियसंजमाणं 2, विराहियसंजमाणं 3, अविराहियसंजमासंजमाणं 4, विराहियसंजमासंजमाणं 5, असण्णीणं 6, तावसाणं 7, कंदप्पियाणं 8, - -- - 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 47-48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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