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________________ भगवती सूत्र शतक 15 में तेजोलन्धि का भी निरूपण है / तेजोल ब्धि वह लब्धि है, जिससे साढ़े सोलह देश भस्म किये जा सकते थे। वह शक्ति आधुनिक उद्जन बम की तरह थी। भौतिक शक्ति की अपेक्षा प्राध्यात्मिक शक्ति अधिक प्रबल होती है, यह प्रस्तुत प्रसंगों से स्पष्ट है / जैन परम्परा की तरह बौद्ध और वैदिक परम्परा में भी तपोजन्य लब्धियों का उल्लेख हुआ है / योगदर्शन में प्राचार्य पतञ्जलि ने योग का प्रभाव प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि योगी को अणिमा, महिमा, लघिमा प्रभृति पाठ महाविभूतियाँ प्राप्त होती हैं। इससे योगी अणु को विराट और विराट को अणु बना सकता है। जिसे जैन परम्परा में लब्धि कहा है उसे ही योगदर्शन में विभूतियां कहा है। आगमकार ने यह सुचित किया है कि लब्धि होना अलग चीज है और उसका प्रयोग करना अलग चीज है। लब्धि सहज ही पर लब्धि का प्रयोग प्रमत्त दशा में ही होता है। छटठे गूणस्थान तक ही साधक लब्धि का प्रयोग करता है। अप्रमत्त साधक लब्धि का प्रयोग नहीं करता है। लब्धिप्रयोग प्रमत्त भाव है। प्रमाद कर्मबन्धन का कारण है। इसीलिए भगवती के बीसवें शतक, नौवें उद्देशक में स्पष्ट कहा है-जो साधक लब्धि का प्रयोग कर प्रमादसेवना कर पुन: उसकी आलोचना नहीं करता है; अनालोचना की दशा में ही काल प्राप्त कर जाता है तो वह धर्म की आराधना से युक्त हो जाता है। “नत्थि तस्स पा राहणा" अर्थात् वह विराधक हो जाता है। यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि लब्धिप्रयोग प्रमाद क्यों है ? उत्तर है कि उसमें उत्सुकता, कुतूहल , प्रदर्शन, यश और प्रतिष्ठा की भावना रहती है। लब्धिप्रयोग करने वाले के अन्तर्मानस में कभी यह दिनार पनपता है कि जनमानस पर मेरा प्रभाव गिरे / कभी-कभी वह क्रोध के कारण दूसरे व्यक्ति का अनिष्ट करने के लिये लब्धि का प्रयोग करता है, इसलिये उसमें प्रमाद रहा हुआ है। जैनसाधना में चमत्कार को नहीं सदाचार को महत्त्व दिया है। जिस प्रकार भगवान महावीर ने लब्धिप्रयोग का निषेध किया वैसे ही तथागत बुद्ध ने चमत्कारप्रदर्शन को ठीक नहीं माना / संयुक्तनिकाय में भिक्ष मौदगल्यायन का वर्णन है जो लब्धिधारी और ऋद्धिबल सम्पन्न था* / समय-समय पर वह चमत्कारप्रदर्शन भी करता था / अत: बुद्ध समय-समय पर चमत्कारप्रदर्शन का निषेध करते रहे / प्रत्याख्यान : एक चिन्तन इच्छाओं के निरोध के लिये प्रत्याख्यान आवश्यक है। प्रत्याख्यान का अर्थ है प्रवत्ति को मर्यादित और सीमित करता / ' प्राचार्य अभयदेव ने स्थानांगवत्ति में लिखा है कि अप्रमत्त भाव को जगाने के लिये जो मर्यादापूर्वक संकल्प किया जाता है वह प्रत्याख्यान है। 100 साधक प्रात्मशुद्धि हेतु यथाशक्ति प्रतिदिन कुछ न कुछ त्याग करता है / त्याग करने से उसके जीवन में अनासक्ति की भव्य भावना अंगड़ाइयाँ लेने लगती है और तुरुणा मंद से मंदतर होती चली जाती है। प्रत्याख्यान के भी दो प्रकार हैं-१. द्रव्यप्रत्याख्यान और 2. भावप्रत्याख्यान / द्रव्यप्रत्याख्यान में आहार, वस्त्र प्रभृति पदार्थों को छोड़ना होता है और भावप्रत्याख्यान में रागद्वेष, कषाय प्रभृति अशुभ वृत्तियों का परित्याग करना होता है / ___ आवश्यकनियुक्ति 108 में आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है-प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन होता है *देखिए धम्मपद अट्ठकथा 4-44 (ख) अंगृतरनिकाय 1-14 106. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ. 104 107. प्रमादप्राति कल्येन मर्यादया स्यानं-कथनं प्रत्याख्यानम / --स्थानांगटीका प्र.४१ 108. प्रावश्यकनियुक्ति, 1594 [ 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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