SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2684
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48 | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राकपड़ता 1 अणुमाणहत्ता 2 ज दिळं 3 बायरं व 4 सुहुमं वा 5 / छन्नं 6 सद्दाउलयं 7 बहुजण 8 अंवत्त 6 तस्सेवी 10 // 8 // [दारं 2] / [191] आलोचना के दस दोष कहे हैं। वे इस प्रकार हैं--यथा-[गाथार्थ] (1) प्राकम्प्य. (2) अनुमान्य, (3) दृष्ट, (4) बादर, (5) सूक्ष्म, (6) छन्न-प्रच्छन्न, (7) शब्दाकुल, (8) बहुजन, (6) अव्यक्त और (10) तत्सेवी।। 8 / / [द्वितीय द्वार] विवेचन-अालोचना के दस दोष-जाने या अनजाने लगे हुए दोषों का पहले स्वयं मन में विचार करना, फिर उचित प्रायश्चित्त कर लेने के लिए गुरु, प्राचार्य या बडे (गीतार्थ) साधू के समक्ष निवेदन करना 'मालोचना' है। वैसे सामान्यतया आलोचना का अर्थ है-अपने दोषों को भलीभांति देखना / पालोचना के दस दोष हैं / साधक को उनका त्याग करके शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिए। वे दोष इस प्रकार हैं (1) अांकयित्ता-आकम्प्य–प्रसन्न होने पर गुरुदेव मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा सोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर आलोचना करना। अथवा कांपते हुए मालोचना करना, ताकि गुरुदेव समझे कि यह दोष का नाम लेते हुए कांपता है, मन में दोष न करने का खटका है / यह अर्थ भी सम्भव है। (2) अणमाणइत्ता-अनुमान्य या अणमान्य-बिलकल छोटा अपराध बताने से गुरुदेव मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा अनुमान करके अपने अपराध को बहुत ही छोटा (अणु) करके बताना / (3) विट्ठ (दृष्ट)---जिस दोष को गुरु आदि ने सेवन करते देख लिया, उसी की आलोचना करना / (4) बायर (बादर)-केवल बड़े-बड़े अपराधों की लोचना करना और छोटे अपराधों की मालोचना न करना बादर दोष है / (5) सूहम---सूक्ष्म-जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करता है, वह बड़े-बड़े अपराधों को पालोचना करना कसे छोड़ सकता है ? इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न कराने हेतु केवल छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करना / (6) छष्ण--छन्न-अधिक लज्जा के कारण अलोचना के समय अव्यक्त-शब्द बोलते हुए इस प्रकार से आलोचना करना कि जिसके पास आलोचना करे वह भी सुन न सके / (7) सद्दाउलयंशब्दाकुल होकर दूसरे अगीतार्थ व्यक्तिगण सुन सके, इस प्रकार से उच्च स्वर में बोलना / (8) बहुजणं-बहुजन--एक ही दोष या अतिचार की अनेक साधुओं के पास पालोचना करना / (6) अव्वत्तं (अव्यक्त).अगीतार्थ (जिस साधु को पूरा ज्ञान नहीं है कि किस अपराध का, कैसी परिस्थिति में किए हुए दोष का कितना प्रायश्चित्त दिया जाता है) के समक्ष आलोचना करना / १०-तस्सेवी (तत्सेवी)--जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसे उसी दोष के सेवन करने वाले प्राचार्य या बड़े साधु के समक्ष आलोचना करना। ये पालोचना के दस दोष हैं, जिन्हें त्याज्य समझना चाहिए।' तृतीय पालोचनाद्वार : पालोचना करने तथा सुनने योग्य साधकों के गुरण 162. दसहि ठाणेहि संपन्ने अणगारे अरिहति प्रत्तदोसं पालोएत्तए, तं जहाजातिसंपन्ने 1 कुलसंपन्ने 2 विणयसंपन्ने 3 गाणसंपन्ने 4 सणसंपन्ने 5 चरित्तसंपन्ने 6 खंते 7 दंते 8 अमायो अपच्छाणुतावी 10 / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 919-920 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3458 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy