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________________ [व्याख्यानप्तिसूत्र 23. ते णं भंते ! जोवा कि सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! नो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा / [दारं 18] / [23 प्र.] भगवन् ! क्या वे उत्पल के जीव सक्रिय हैं या अक्रिय हैं ? [23 उ.] गौतम ! वे अक्रिय नहीं हैं, किन्तु एक जीव भी सक्रिय है और अनेक जीव भी सक्रिय हैं। -अठारहवाँ द्वार 24. ते णं भंते ! जीवा कि सतविहबंधगा, अविहबंधगा ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए बा, अट्ठ भंगा। [दारं 19] / (24 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव सप्तविध (सात कर्मों के) बन्धक हैं या अष्टविध अाठों ही कर्मों के) बन्धक हैं ? [24 उ. | गौतम ! वे जीव सप्तविधवन्धक हैं या अष्टविधबन्धक हैं / यहाँ पूर्वोक्त आठ भंग कहने चाहिए / [--उन्नीसवाँ द्वार विवेचन-विरत, अविरत, विरताविरत-विरत का अर्थ यहाँ हिंसादि 5 पाश्रवों से सर्वथा विरत है / अविरत का अर्थ है---जो सर्वथा विरत न हो और विरताविरत का अर्थ है-जो हिंसादि 5 प्राश्रबों से कुछ अंशों में विरत हो, शेष अंशों में अविरत हो, इसे देशविरत भी कहते हैं। उत्पल के जीव सर्वथा अविरत होते हैं / वे चाहे बाहर से हिंसादिसेवन करते हुए दिखाई न देते हों, किन्तु वे हिंसादि का त्याग मन से, स्वेच्छा से, स्वरूप समझबूझ कर नहीं कर पाते, इसलिए अविरत हैं। सक्रिय या प्रक्रिय ?--मुक्त जीव अक्रिय हो सकते हैं। सभी संसारी जीव मक्रिय-क्रियायुक्त होते हैं। बन्ध : अष्टविध एवं सप्तविध का तात्पर्य-आयुष्यकर्म का बन्ध जीवन में एक ही बार होता है, इसलिए जब आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं करता, तब सप्तविधबन्ध करता है, जब अायुकर्म का भी बन्ध करता है, तब अष्टविध बन्ध करता है। इसी दृष्टि से इसके 8 भंग पूर्ववत् होते हैं।' २०-२१----संज्ञाद्वार और कषायद्वार 25. ते णं भंते ! जीवा कि आहारसण्णोवउत्ता, भयसण्णोवउत्ता, मेहुणसन्नोवउत्ता, परिग्गहसन्नोवउत्ता? गोयमा ! आहारसम्णोवउत्ता वा, असोतो भंगा। [दारं 20] / 25 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव आहारसंजा के उपयोग वाले हैं, या भयसंज्ञा के उपयोंग बाले हैं, अथवा मैथुनसंज्ञा के उपयोग वाले हैं, या परिग्रहसंज्ञा के उपयोग वाले हैं ? - -- 1. वियाहपण्णत्तिसत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 510 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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