________________ चत्तालीसइमं सयं : एक्कवीसं सन्निपंचिदियमहाजुम्मसयाई चालीसवां शतक : इक्कीस संज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक पढमे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : पढमो उद्देसओ प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक संजीपंचेन्द्रिय के उपपातादि की प्ररूपरणा 1. कडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कत्रो डववज्जति ? . उववातो चउसु वि गतीसु / संखेज्जवासाउय-असंखेज्जवासाउय-पज्जत्त-अपज्जत्तएसु य / न कतो वि पडिसेहो जाव अगुत्तरविमाण त्ति / परिमाणं, प्रवहारो, प्रोगाहणा य जहा असष्णिपंचेंदियाणं / वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा प्रबंधगा वा वेयणिज्जस्स बंधगा, नो प्रबंधगा। मोहणिज्जस्स वेयगा वा, अवेयगा वा। सेसाणं सत्ताह वि वेयगा, नो अवेयगा। सायाधेयगा वा असायावेयगा वा / मोहणिज्जस्स उदई बा, अणुदई वा; सेसाणं सत्ताह वि उदई, नो अणुदई / नामस्स गोयस्स य उदीरगा, नो अणुदोरगा; सेसाणं छह वि उदीरगा वा, अणुदीरगा वा। कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। सम्मद्दिट्टी वा, मिच्छादिट्ठी, वा, सम्मामिच्छट्टिी वा। गाणी वा अण्णाणी या / मणजोगी वा, वइजोगी वा, कायजोगी वा। उवयोगो, वनमाई, उस्सासगा, पाहारगा य जहा एगिदियाणं / विरया वा अविरया वा, विरयाविरया वा। सकिरिया, मो प्रकिरिया। [1 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इनका उपपात चारों गतियों से होता है। ये संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों से आते हैं। यावत् अनुत्तरविमान तक किसी भी गति से आने का निषेध नहीं है। इनका परिमाण, अपहार और अवगाहना असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के समान है। ये जीव बेदनीयकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक अथवा प्रबन्धक होते है / वेदनीयकर्म के तो बन्धक ही होते हैं, अबन्धक नहीं / मोहनीयकम के वेदक या अवेदक होते हैं। शेष सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं। वे सातावेदक अथवा असातावेदक होते हैं। मोहनीयकर्म के उदयी अथवा अनुदयी होते हैं। शेष सात कर्मप्रकृतियों के उदयी होते हैं, अनुदयी गोत्र कर्म के वे उदीरक होते हैं, अनुदीरक नहीं। शेष छह कर्मप्रकृतियों के उदीरक या अनुदीरक होते हैं। वे कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं। वे सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यम्- / मिथ्यादृष्टि होते हैं। ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। वे मनोयोगी, बचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें उपयोग, वर्णादि चार, उच्छ्वास-निःश्वास और आहारक (-अनाहारक) का कथन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org