________________ 192] / व्याख्याप्रशप्तिसूत्र "[13] तए णं तं वरुणं नागणत्तयं कालगयं जाणित्ता प्रहासन्निहितहि वाणमंतरेहि देवेहि दिवे सुरभिगंधोदगवासे वुट्ट, दसद्धवणे कुसुमे निवाडिए, दिव्वे य गोयगंधव्यनिनादे कते यावि होत्था। [20-13] तदनन्तर उस वरुण नागनत्तुआ को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर निकटवर्ती बाणव्यन्तर देवों ने उस पर सुगन्धितजल की वृष्टि की, पांच वर्ण के फूल बरसाए और दिव्यगीत एवं गन्धर्व-निनाद भी किया। __ "[14] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं दिव्यं देविड्डि दिन्वं देवजुई विम्वं देवाणुभाग सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अनमन्नम्स एबमाइक्खइ जाव पल्वेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो अवंति"। [20-14] तब से उस वरुण नागनत्तमा की उस दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवप्रभाव को सुन कर और जान कर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि–'देवानुप्रियो ! जो संग्राम करते हुए बहुत-से मनुष्य मरते हैं, यावत् वे देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।" विवेचन--'संग्राम में मत्य प्राप्त मनव्य देवलोक में जाता है इस मान्यता का खण्डन-प्रस्तत 20 वें सूत्र में वरुण नागनत्तुआ का प्रत्यक्ष उदाहरण दे कर 'युद्ध में मरने वाले सभी देवलोक में जाते हैं' इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण और भ्रान्त धारणा का कारण अंकित किया है / फलितार्थ- भगवान महावीर के युग में एक मान्यता यह थी कि युद्ध में मरने वाले-वीरगति पाने वाले--स्वर्ग में जाते हैं। इसी मान्यता की प्रतिच्छाया भगवद्गीता (अ. 2, श्लोक 32, 37) में इस प्रकार से है यदच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् / सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ ! लभन्ते युद्धमीदृशम् // 32 // हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् / तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय ! युद्धाय कृतनिश्चयः // 37 / / अर्थात्- 'हे अर्जुन ! अनायास ही (युद्ध के कारण) स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है / सुखी क्षत्रिय ही ऐसे युद्ध करने का लाभ पाते हैं। ___यदि युद्ध में मर गए तो मर कर स्वर्ग पायोगे, और अगर विजयी बन गए तो पृथ्वी का उपभोग (राजा बन कर) करोगे। इसलिए हे कुन्तीपुत्र ! कृतनिश्चय हो करके युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' प्रस्तुत सूत्र में वरुण नागनत्तुआ और उसके बालमित्र का उदाहरण प्रस्तुत करके भगवान् ने इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण कर दिया कि केवल संग्राम करने से या युद्ध में मरने से किसी को स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपितु अज्ञानपूर्वक तथा त्याग-व्रत-प्रत्याख्यान से रहित होकर असमाधिपूर्वक मरने से प्राय: नरक या तिर्यंचगति ही मिलती है / अतः संग्राम करने वाले को संग्राम करने से अथवा उसमें मरने से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपितु न्यायपूर्वक संग्राम करने के बाद जो संग्रामकर्ता अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org