________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 23] [261 लाख वर्ष अधिक पल्योपम कहा है, इसका कारण यह है कि वह इतनी ही स्थिति वाले ज्योतिष्क देव में उत्पन्न होने वाला है, क्योंकि असंख्यात वर्ष की आय वाले जीव अपने से अधिक आयुवाले देवों में उत्पन्न नहीं होते। यह पहले भी कहा जा चुका है। (3) चौथे गमक में जघन्य काल की स्थिति वाले को उत्पत्ति औधिक ज्योतिष्क में बताई है, सो असंख्यात वर्ष की आयु वाला जीव तो पल्योपम के आठवें भाग से कम जघन्य प्राय वाला हो सकता है, किन्तु ज्योतिष्कदेवों में इससे कम आयु नहीं है। असंख्येयवर्षायुष्क अपनी आय के समान उत्कृष्ट देवायुबन्धक होते हैं। इसलिए जघन्य स्थिति वाले वे पल्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले होते हैं / प्रथम कुलकर विमलवाहन के पूर्वकाल में होने वाले हस्ती आदि की यह स्थिति थी / इसी प्रकार प्रोधिक ज्योतिष्कदेव भी उस उत्पत्तिस्थान को प्राप्त होते हैं। (4) अवगाहना-विषयक-यहां जो अवगाहना धनुषपृथक्त्व को कही है, वह भी विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले पल्योपम के आठवें (E) भाग की स्थिति वाले हस्ती आदि से भिन्न क्षुद्रकाय चतुष्पदों की अपेक्षा जाननी चाहिए और उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक 1800 धनुष की कही है, वह विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले हस्त्यादि की अपेक्षा से जाननी चाहिए, क्योंकि विमलवाहन कुलकर की अवगाहना 600 धनुष की थी और उस समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना उससे दुगुनी थी तथा उससे पहले समय में होने वाले हस्ती आदि को अवगाहना सातिरेक 1800 धनुष को थी। (5) चौथे गमक की जो वक्तव्यता है, उसी में पांचवें और छठे गमक का अन्तर्भाव कर दिया गया है / क्योंकि पल्योपम के आठवें भाग की प्रायुवाले यौगलिक तिर्यञ्चों की पांचवें और छठे गमक में भी पल्योपम के आठवें भाग की ही आयु होती है / (6) सप्तम आदि गमकों में तिर्यञ्चों की तीन पल्योपम की स्थिति होती है, जो उत्कृष्ट ही है / ज्योतिष्कदेव की सातवें गमक में जघन्य और उत्कृष्ट, यह दो प्रकार की स्थिति होती है। (7) आठवें गमक में स्थिति पल्योपम के ८वे (6) भाग तथा नौवें गमक में सातिरेक पल्योपम होती है। (8) इसी के अनुसार संवेध करना चाहिए / (8) इस प्रकार पहला-दूसरा-तीसरा, ये तीन गमक, मध्य में तीन गमकों के स्थान में एक ही गमक और अन्तिम तीन गमक, यों कुल मिलाकर ये सात' गमक होते हैं। ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होनेवाले संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उपपातादि बीस द्वारों का निरूपण 6. जइ संखेज्जवासाउयसनिपंचेंदिय० ? संखेज्जवासाउयाणं जहेब असुरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तहेव नव वि गमगा भाणियव्वा, नवरं जोतिसिठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव निरवसेसं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 846 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 6, पृ. 3173-3174 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org