________________ [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [2] सेकेणठेणं जाप समज्जिया वि! गोयमा ! जे णं पुढविकाइया णेगेहि बारसहि पवेसणगं पविसंति ते गं पुढविकाइया बारसएहिं समज्जिया / जे णं पुढविकाइया णेगेहि बारसहि। अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहि वा, उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविकाइया बारसएहि य नोवारसरण य समज्जिया / सेतेणठेणं जाव समज्जिया वि। 45.2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (पृथ्वीकायिक"यावत अनेक-द्वादशसजित भी हैं और अनेक द्वादश-नोद्वादश) समजित भी हैं ? 45.2 उ. गौतम ! जो पृथ्वीकायिक जीव (एक समय में एक साथ) अनेक द्वादश-द्वादश की संख्या में प्रवेश करते हैं. वे अनेक-द्वादश-समजित हैं और जो पृथ्वीकायिक जीव अनेक द्वादश तथा जघन्य एक, दो, तीन एवं उत्कृष्ट ग्यारह प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक-द्वादश और एक नोद्वादश-सजित हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐमा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक यावत् अनेक बादश-नो-द्वादश-समजित भी हैं / 46. एवं जाव वणस्सइकाइया। {46] इसी प्रकार (के अभिलाप) यावत् वनस्पतिकायिक तक (कहने चाहिए। 47. बेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइया / [47] द्वीन्द्रियों जीवों से लेकर यावत् सिद्धों तक नै रयिकों के समान समझना चाहिए। विवेचन-द्वादश-समजित आदि का स्वरूप जो जीव एक समय में एक साथ बारह की संख्या में सामूहिक रूप से उत्पन्न हों उन्हें द्वादश-सजित कहते हैं तथा जो जीव एक से लेकर ग्यारह तक एक साथ उत्पन्न हों, उन्हें नो-द्वादश-मजित कहते हैं। शेष कथन पटक-समजित के समान समझना चाहिए।' द्वादश, नोद्वादश आदि से सजित चौवीस दण्डकों तथा सिद्धों का अल्पबहत्त्व एएसि णं भंते ! नेरइयाणं बारससमज्जियाणं० / सम्वेसि अप्पाबहुगं जहा छक्कसमज्जियाणं, नवरं बारसाभिलायो, सेस तं चेव / [48 प्र.] भगवन् ! इन द्वादश-सजित यावत् अनेक-द्वादश-नो-द्वादश-सजित नैरयिकों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? 146 उ.] गौतम ! जिस प्रकार षट्क-सजित आदि जीवों का अल्प बहुत्व कहा, उसी प्रकार द्वादश-सजित आदि सभी जीवों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि 'षट्क' के स्थान में 'द्वादश', ऐसा अभिलाप करना (कहना) चाहिए / शेष सब पूर्ववत् है। विवेचन द्वादशसमजित प्रादि का अल्पबहुत्व षट्कसमजित आदि के समान ही है। केवल षट्क के बदले द्वादश शब्द का प्रयोग करना चाहिए। 1. भगवतो. विवचन भा. 6 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 2934 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org