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________________ 494 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आजीविकोपासक उनके पास आया और उन्हें वन्दना-नमस्कार करके उनसे न अत्यन्त निकट पौर न अत्यन्त दूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा। 101. 'अयंपुल !' त्ति आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वदासि-'से नणं ते अयंपुला! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव किसंठिया हल्ला पन्नता? तए णं तव अयंपुला! दोच्चं पि अयमेयारूवे०, तं चेव सव्वं भाणियब्वं जाव सात्थि नरि मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुभकारीए कुंभकारावणे जेणेव इहं तेणेव हन्वमागए, से नणं ते अयंपुला! अठे समठे ? 'हंता, अस्थि / जं पि य अयंपुला! तब धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ तत्थ वि णं भगवं इमाइं अट्ठ चरिमाइं पन्नवेति, तं जहा-चरिमे पाणे नाव अंतं करेस्सति / जंपिय अयंपुला ! तव धम्मारिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टिया जाव विहरति, तत्थ वि णं भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाई पनवेति / से कि तं पाणए ? पाणए जाव ततो पच्छा सिज्मति जाव अंतं करेति / तं गच्छ गं तुमं अयंपुला! एस चेव ते धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते इमं एयारूवं वागरणं वागरेहिति / 101] 'हे अयंपुल' ! इस प्रकार सम्बोधन करके आजीविक स्थविरों ने आजीविकोपासक अयंपुल से इस प्रकार कहा-हे अयंपुल ! आज पिछली रात्रि के समय यावत् तुझे ऐसा मनोगत संकल्प उत्प पा कि 'हल्ला' की आकृति कैसी होतो है? इसके पश्चात हे अयंपल ! तझे ऐसा विचार उत्पन्न हुना कि मैं अपने धर्माचार्य..'से पूछ कर निर्णय करूं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए / यावत् तू श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ, झटपट हालाहला कुम्भारिन की दूकान में प्राया; 'हे अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है ?' (अयंपुल--) हाँ, सत्य है। (स्थविर-) हे अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक जो हालाहला कुम्भारिन को दूकान में आम्रफल हाथ में लिये हुए यावत् अंजलिकर्म करते हुए विचरते हैं, वह (इसलिए कि) वे भगवान् गोशालक इस सम्बन्ध में इन पाठ चरमों की प्ररूपणा करते हैं / यथाचरम पान, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। हे अयं पुल ! जो ये तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी मिश्रित शोतल पानो से अपने शरीर के अवयवों पर सिंचन करते हुए यावत् विचरते हैं / इस विषय में भी वे भगवान् चार पानक और चार अपानक की प्ररूपणा करते हैं। वह पानक किस प्रकार का होता है ?' 'पानक चार प्रकार का होता है, यावत्..." इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। अतः हे अयंपुल ! तू जा और अपने इन धर्मावार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक से अपने इस प्रश्न को पूछ / 102. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहि थेरेहि एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ उट्टाए उठेति, उ० 2 जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्य गमणाए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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