________________ पन्द्रहवां शतक] [493 [18] तदनन्तर उस ग्राजीविकोपासक अयंपुल को ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक, उत्पन्न (अतिशय) ज्ञान-दर्शन के धारक, यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं। वे इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भारिन की दुकान में प्राजोविकसंघ सहित आजीविक-सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। अतः कल प्रातःकाल यावत् तेज से जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना यावत् पर्युपासना करके ऐसा यह प्रश्न पूछना श्रेयस्कर होगा।' ऐसा विचार करके उसने दूसरे दिन प्रातः सूर्योदय होने पर स्नान-बलि कर्म किया। फिर अल्प भार और महामूल्य वाले प्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत कर वह अपने घर से निकला और पैदल चल कर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होता हुमा हालाहला कुम्भारिन की दुकान पर पाया। वहां पा कर उसने मंखलिपुत्र-गोशालक को हाथ में ग्राम्रफल लिये हुए, यावत् (नाचते-गाते तथा) हालाहला कुम्भारिन को अंजलि कर्म करते हुए, मिट्टी मिले हुए शीतल जल से अपने शरीर के अवयवों को बार-बार सिंचन करते हुए देखा तो देखते ही लज्जित, उदास और वीडित (अधिक लज्जित) हो गया और धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगा। विवेचन-प्रस्तुत तीन सूत्रों (96-67-98) में प्रथम सूत्र में आजीविकोपासक अयंपुल का सामान्य परिचय, द्वितीय सूत्र में कुटुम्ब जागरण करते हुए उसके मन में हल्ला नामक कीट के आकार को जानने के उत्पन्न विचार का वर्णन है, और तृतीय सूत्र में धर्माचार्य मंलिपुत्र गोशालक से इस जिज्ञासा का समाधान पाने के उत्पन्न हुए संकल्प का तथा तदनुसार गोशालक के पास पहुँचने और गोशालक की उन्मत्तवत् दशा देखकर उसके पीछे खिसकने का वृत्तान्त दिया गया है।' कठिनशब्दों के अर्थ- हल्ला-गोवालिका तृण के समान प्राकार वाला एक कीटविशेष / वागरणं-प्रश्न : विलिए-अकार्यकुत लज्जा से विषण्ण, अथवा वीडित- लज्जित / विड्डे-वीडित अधिक लज्जित / अयं पुल की डगमगातो श्रद्धा स्थिर हुई, गोशालक से समाधान पाकर संतुष्ट, गोशालक द्वारा वस्तुस्थिति का अपलाप 99. तए णं ते आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पच्चोसक्कमाणं पासंति, पा० 2 एवं वदासि -एहि ताव अयंपुला! इतो। [6] जब आजीविक स्थविरों ने आजीविकोपासक अयंपुल को लज्जित होकर यावत् पीछे जाते हुए देखा, तो उन्होंने उसे सम्बोधित कर कहा–'हे अयं पुल ! यहाँ आयो।' 100. तए णं से अपुले आजीवियोवासए आजीवियथेरेहिं एवं धुत्ते समाणे जेणेव आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छइ, उवा०२ माजीबिए थेरे वंदति नमसति, बं० 2 नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति / / 100] आजीविक स्थविरों द्वारा इस प्रकार (सम्बोधित करके) बुलाने पर अयंपुल 1. वियाहपणतिसुत्तं. (मू. पा. टि.) भा. 2, 722-723 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, 684 . (ख) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 781, 799 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org