________________ 312] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र च बहूणं० सेसं तं चेव जाव तेरसअंगुलाई अद्धगुलं च किंचिबिसेसाहिया परिक्खेवेणं / तोसे णं चमरचंचाए रायहाणीए वाहिणपच्चत्थिमेणं छक्कोडिसए पणपन्नच कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साइं अरुणोदगसमुहं तिरियं वीतीवइत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररणो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते, चउरासोति जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं, दो जोयणसयसहस्सा पट्टि च सहस्साई छच्च बत्तीसे जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं / से णं एगेणं पागारेणं सन्वतो समंता संपरिक्खित्ते / से गं पागारे दिवड्ढं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाराय. हाणीवत्तव्वया भाणियन्वा सभाविहूणा जाव चत्तारि पासायपंतीओ। [5 प्र.] भगवन ! असुरेन्द्र और असुरकुमारराज 'चमर' का 'चमरचंच' नामक आवास कहाँ कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण में तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद, जैसे कि द्वितीय शतक के आठवें उद्देशक (सू.१) में कहा गया है (अरुणवर द्वीप की वाह्य वेदिका के अन्त से अरुणवर समुद्र में बयालीस हजार योजन जाने के बाद चमरेन्द्र का तिगिञ्छक कूट नामक उपपात-पर्वत आता है / उससे दक्षिण दिशा में 655 करोड़, 35 लाख, 50 हजार योजन दूर अरुणोदक समुद्र में तिरछा जाने के बाद नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर 40 हजार योजन गहरे जाने पर चमरेन्द्र की चमरचंचा नाम की राजधानी है; इत्यादि) यह समग्र बक्तब्यता समझ लेनी चाहिए / यहाँ विशेष अन्तर इतना ही है कि यावत् तिगिञ्छकूट के उत्पात. पर्वत का, चमरचंचा राजधानी का, चमरचंच नामक आवास-पर्वत का और अन्य बहुत-से द्वीप आदि तक का शेष सब वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए; यावत् (तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन गाऊ, दो सौ अठाईस धनुष और कुछ विशेषाधिक साढे तेरह अंगुल (चमरचंचा राजधानी की) परिधि है। उस चमरचंचा राजधानी से दक्षिण-पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में 655 करोड़, 35 लाख 50 हजार योजन दूर अरुणोदक समुद्र में तिरछे पार करने के बाद वहा असुरेन्द्र एवं असुरकुमारों के राजा चमर का चमरचंच नामक प्रावास कहा गया है ; जो लम्बाईचौड़ाई में 84 हजार योजन है / उसकी परिधि (चारों ओर से घेरा) दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से कुछ अधिक है। यह आवास एक प्राकार (परकोटे) से चारों ओर से घिरा हुआ है / वह प्राकार ऊँचाई में डेढ़ सौ योजन ऊँचा है / इस प्रकार चमरचंचा राजधानी की सारी वक्तव्यता, सभा को छोड़ कर, यावत् चार प्रासाद-पंक्तियाँ हैं, (यहाँ तक) कहनी चाहिए। 6. [1] चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरकुमारराया चरमचंचे प्रावासे वसहि उवेति ? नो इण? समट्ठ। [6-1 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारसज चमर क्या उस 'चमरचंच' प्रावास में निवास करके रहता है ? [6.1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। [2] से केणं खाइ अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ 'चमरचंचे आवासे, चमरचंचे प्रावासे' ? गोयमा ! जे जहानामए इहं मणुस्सलोगसि उवगारियलेणा इ वा, उज्जाणियलेणा इवा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org