________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] [ 103 [३०.उ.] गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति। 31. असंखज्जेसु णं भंते ! पुढविक्काइयावाससतसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासं सि जहन्नठितीए वट्टमाणा पुढविक्काइया कि कोधोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता ? ___गोयमा ! कोहोवउत्ता वि माणोवउत्ता वि मायोवउता वि लोभोव उत्ता वि / एवं पुढविक्काइयाणं सत्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं, नवरं तेउलेस्साए असीति भंगा। [३१.प्र.) भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक पावास में बसने वाले और जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं या लोभोपयुक्त हैं ? [३१.उ.] गौतम ! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, मानोपयुक्त भी हैं, मायोपयुक्त भी हैं, और लोभोपयुक्त भी हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानों में अभंगक है (पृथ्वोकायिकों की संख्या बहुत होने से उनमें एक, बहुल आदि विकल्प नहीं होते / वे सभी स्थानों में बहुत हैं।) विशेष यह है कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहने चाहिए / 32. [1] एवं प्राउक्काइया वि / [2] उक्काइय-वाउकाइयाणं सब्वेसु वि ठाणेसु अभंगयौं / [3] वणप्फतिकाइया जहा पुढविषकाइया। [32-1] इसी प्रकार अप्काय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। [32-2] तेजस्काय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है / [32-3] वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए / विकलेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक स्थिति प्रादि दसद्वार 33. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जेहि ठाणेहि ने रतियाणं प्रसीइ भंगा तेहि ठाणेहि असीई चेव / नवरं प्रभहिया सम्मत्ते, आभिणिबोयिनाणे सुयनाणे य, एएहि असोइ भंगा; जेहि ठाणेहि नेरतियाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सम्वेसु अभंगयं / 33] जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं। विशेषता यह है कि सम्यक्त्व (सम्यग्दृष्टि) आभिनिबोधिक ज्ञान, और श्रुतज्ञान-इन तीन स्थानों में भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, इतनी बात नारक जीवों से अधिक है / तथा जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक है, अर्थात्- कोई विकल्प नहीं होते। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि कथनपूर्वक दसद्वारनिरूपण 34. पंचिदियतिरिक्खजोगिया जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, नवरं जेहि सत्तावीसं भंगा तेहि अभंगय कायन्वं / जत्थ असीति तत्थ असीति चेव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org