________________ 104] [ ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [34] जैसा नैरयिकों के विषय में कहा, वैसा ही पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों के विषय में कहना चाहिए / विशेषता यह है कि जिन-जिन स्थानों में नारक-जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन-उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहना चाहिए, और जिन स्थानों में नारकों के अस्सी भंग कहे हैं, उन स्थानों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए। मनुष्यों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक दसद्वार 35. मणुस्सा वि / जेहि ठाणेहि नेरइयाणं असोति भंगा तेहि ठाणेहि मणुस्साण वि असीति भंगा माणियवत्रा / जेसु ठाणेसु सतावोसा तेसु अभंगयं, नवरं मणुस्साणं अभहियं-जहनियाए ठिईए पाहारए य असीति भंगा। [35] नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे गए हैं, उन-उन स्थानों में मनुष्यों के भी अस्सो भंग कहने चाहिए / नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गए हैं उनमें मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि मनुष्यों के जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, और यही नैरयिकों की अपेक्षा मनुष्यों में अधिक है। वाणव्यन्तरों के क्रोधोपयुक्तपूर्वक दसद्वार 36. वाणमंतर-जोदिस-वेमाणिया जहा भवशवासो (सु. 29) नवरं जाणत्तं जाणियध्वं जं जास; जाव' प्रणुत्तरा। सेवं भंते ! सेब भंते ! ति। // पंचमो उद्देसो समत्तो // [36] बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन भवनपति देवों के समान सम. झना चाहिए। विशेषता यह है कि जो जिसका नानात्व-भिन्नत्व है, वह जान लेना चाहिए, यावत् अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए। ___ 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है'; ऐसा कह कर यावन् गौतम स्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक के क्रोधोपयुक्त प्रादि भंग निरूपणपूर्वक स्थिति-अवगाहनादि दसद्वारप्ररूपण- प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 29 से 36 तक) द्वारा शास्त्रकार ने स्थिति अवगाहना आदि दस द्वारों का प्ररूपण करते हुए उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि भगों का प्रतिपादन किया है। भवनपति देवों को प्रकृति नारकों की प्रकृति से भिन्न-नरक के जीवों में क्रोध अधिक होता है, वहाँ भवनपति आदि देवों में लोभ की अधिकता होती है / इसीलिए नारकों में जहां 27 भंग-क्रोध, मान, माया, लोभ इस क्रम से कहे गए थे, वहाँ देवों में इससे विपरीत क्रम से कहना चाहिए, यथा-लोभ, माया, मान, और क्रोध / देवों को प्रकृति में लोभ को अधिकता होने से समस्त भंगों में 1. 'जाव' पद से 'सोहम्म-ईसाण' से लेकर 'अत्तरा' (अनुत्तरदेवलोक के देव) तक के नामों की योजना कर लेनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org