________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ ] [473 रयण, जाव एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 3 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होज्जा 4 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे बालुय०, एगे धूमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 5 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे वालय 0, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 6 / अह्वा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 7 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 8 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 9 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे धूम०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 10 / अहवा एगे रयण०, एगे वालय०, एगेपंक०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 11 / अहवा एगे रयण, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 12 / अहवा एगे रयण०, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 13 / अहवा एगे रयण, एगे वालुय०, एग धूम०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 14 / अहवा एगे रयण०, एगे पंक०, जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 15 / अहवा एगे सक्कर० एगे वालुय० जाव एगे तमाए होज्जा 16 / अहवा एगे सक्कर० एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 17 / अहवा एगे सक्कर०, जाव एगे पंक०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 18 / अहवा एगे सक्कर०, एगे वालुय०, एगे धूम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 19 / अहवा एगे सक्कर०, एगे पंक०, जाव एगे अहेससमाए होज्जा 20 / अहवा एगे वालय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 21 / 462 / 20 प्र. भगवन् ! पांच नैरयिक जीव, नैयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पृच्छा / [20 उ.] गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अधःसप्तम-पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं / (इस प्रकार असंयोगी सात भंग होते हैं।) (द्विकसंयोगी 84 भंग-) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में और चार शर्कराप्रभा में होते हैं; (2-6) यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तम-पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ 1-4 शेष पृथ्वियों का योग करने पर 6 भंग होते हैं / (1) अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं; (2-6) इसी प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (यों 2-3 से 6 भंग होते हैं / ) (1) अथवा तीन रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते हैं। 2-6 इसी प्रकार यावत् अथवा तीन रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (यों 3-2 से 6 भंग होते हैं 1) (1) अथवा चार रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है, (2-6) यावत् अथवा चार रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार 4-1 से 6 भंग होते हैं / यो रत्नप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों के संयोग से कुल चौवीस भंग होते हैं / ) (1) अथवा एक शर्कराप्रभा में और चार बालुकाप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार रत्नप्रभा के साथ (1-4, 2-3, 3-2 और 4-1 से आगे की पृथ्वियों का संयोग किया, उसी प्रकार शर्कराप्रभा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org