________________ 2.28] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र .. 11. माया भंते ! नेरइयाणं नाणे, अन्ने नेरइयाणं नाणे ? गोयमा ! प्राया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण से नियमं आया। .:. [11 प्र.] भगवन् ! नरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है अथवा अज्ञानरूप है ? [11 उ.] गौतम ! नैरयिकों को प्रात्मा कथञ्चित् ज्ञानरूप है और कथञ्चित् अज्ञान रूप है। किन्तु उनका ज्ञान नियमतः (अवश्य हो) यात्मरूप है / 12. एवं जाव थणियकुमाराणं / [12] इसी प्रकार (का प्रश्नोत्तर) पावत् ‘स्तनितकुमार' (भवनपति देव के अन्तिम प्रकार) तक कहना चाहिए / .. 13. माया भंते ! पुढविकाइयाणं अन्नाणे, अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे ? गोयमा! आया पुढविकाइयाणं नियम अन्नाणे, अण्णाणे वि नियमं आया। [13 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को प्रात्मा क्या अज्ञानरूप (मिथ्याज्ञानरूप ही) है ? क्या पृथ्वीकायिकों का प्रज्ञान अन्य (प्रात्मरूप नहीं) है ? [13 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों को प्रात्मा नियम से अज्ञान रूप है, परन्तु उनका अज्ञान अवश्य हो आत्मरूप है। 14. एवं जाव वसतिकाइयाणं। [14] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए। 15. बेइंदिय-तेइंदिय० जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं / [15] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि मे लेकर यावत् वैमानिक तक के जीवों तक का कथन नैरयिकों के समान (सू. 11 में उक्त के अनुसार) जानना चाहिए / . विवेचन--प्रश्न और उनके आशय -प्रस्तुन 5 मूत्रों (11 से 15 तक) में नैयिक से लेकर वैमानिक तक 24 दण्डकों में ज्ञान को लेकर प्रश्न किया गया है। प्रश्न का आशय यह है कि नारकों को प्रात्मा सम्यग्दर्शन होने से ज्ञानरूप (सम्यग्ज्ञान रूप) है अथवा मिथ्यादर्शन होने से अज्ञानरूप है ? भगवान् ने उत्तर में नेरयिकों को आत्मा को कथंचित् ज्ञानरूप और कथंचित् अज्ञानरूप बताया है, उसका आशय भी वही है / किन्तु उनका ज्ञान (सम्यग्ज्ञान हो या मिथ्याज्ञान) अवश्य ही प्रात्मरूप है। इसी प्रकार पृथ्वी कायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जोवों के विषय में [उनमें नियमत: अज्ञान (मिथ्याज्ञान) होने से सोधा ही पूछा गया है कि पृथ्वोकायिक प्रादि (पांच स्थावरों) को प्रात्मा अज्ञान रूप है, अथवा अज्ञान, पृथ्वोकायिकादि से भिन्न है ? उत्तर में भी यही कहा गया है कि उनको प्रात्मा अज्ञानरूप है और प्रज्ञान उनको प्रात्मा से भिन्न (अन्य) नहीं है।' __ द्वीन्द्रिय से लेकर प्रागे वैमानिक देवों तक ज्ञान के विषय में प्रश्नोत्तर नैरयिकों के समान समझना चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 592 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org