________________ 632] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] इसी प्रकार (सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त) इन चारों भेदों सहित, यावत्हे भगवन् ! पर्याप्तबादरवनस्पतिकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं ? [16 उ.] गौतम ! पूर्ववत् चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--एकेन्द्रिय में कर्मप्रकृतियों को सत्ता, बन्ध और वेदन--सभी प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में पाठ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। वे सात या आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं तथा चौदह कर्म प्रकृतियाँ वेदते (भोगते) हैं। 14 में से 8 तो मूल कर्मप्रकृतियाँ हैं, 6 उत्तरप्रकृतियाँ हैं। चार इन्द्रियों के क्रमशः प्रावरण तथा स्त्रीवेदावरण एवं पुरुषवेदावरण / श्रोत्रेन्द्रियावरण प्रादि 4 मतिज्ञानावरणीय के प्रकार हैं तथा स्त्रीवेदावरण एवं पुरुषवेदावरण मोहनीयकर्म के प्रकार हैं। चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन क्यों और कैसे ? –समस्त प्रकार के एकेन्द्रिय जीव 14 कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, उनमें से आठ तो प्रसिद्ध हैं। शेष 6 उनके विशेषभूत हैं। प्राशय यह है कि एकेन्द्रिय जीवों को सिर्फ स्पर्शन्द्रिय और नपुंसकवेद प्राप्त होता है, उनको शेष चार इन्द्रियाँ उपलब्ध नहीं होतीं, उनका ज्ञान भी आवृत रहता है तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी उन्हें प्राप्त नहीं होते। सोइंदियवझ प्रादि का विशेषार्थ-जिसका श्रोत्रेन्द्रिय वध्य-हननीय हो, वह श्रोत्रेन्द्रियवध्य है, इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के साथ तथा वेद के साथ 'वध्य' शब्द लगा है, उसका भावार्थ है-~-श्रोत्रेन्द्रिय आदि मतिज्ञान विशेष आवृत होते हैं, उन्हें प्राप्त नहीं।' तेतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) श्रीमद्भगवतीसूत्रम्, खण्ड 4 (गुजराती अनुवाद) पृ. 318 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 954 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org