________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६ | [ 115 दिट्ठी सण पाणा सण्ण सरोरा य जोग उवनोगे। दव्व पदेसा पज्जव श्रद्धा, कि पुब्बि लोयंते ? // 2 // पुदिव भंते ! लोयंते पच्छा सव्वद्धा ? / [20] इस प्रकार निम्नलिखित स्थानों में से प्रत्येक के साथ लोकान्त को जोड़ना चाहिए; यथा-(गाथार्थ-) अवकाशान्तर, वात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष (क्षेत्र), नारक आदि जीव (चौबीस दण्डक के प्राणो), अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्याय और काल (अद्धा); क्या ये पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? अथवा हे भगवन् ! क्या लोकान्त पहले और सद्धिा (मर्व काल) पीछे है ? 21. जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते, एवं अलोयंतेण वि संजोएतव्वा सव्वे / [21] जैसे लोकान्त के साथ (पूर्वोक्त) सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार अलोकान्त के साथ इन सभी स्थानों को जोड़ना चाहिए। 22. पुचि भंते ! सत्तमे प्रोवासंतरे ? पच्छा सत्तमे तणुवाते ? एवं सत्तमं ओवासंतरं सवेहि समं संजोएतब्वं जाव' सव्वद्धाए / [22 प्र. भगवन् ! पहले सप्तम अवकाशान्तर है और पीछे सप्तम तनुवात है ? [22 उ] हे रोह ! इसी प्रकार सप्तम अवकाशान्तर को पूर्वोक्त सब स्थानों के साथ जोड़ना चाहिए / इसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा तक समझना चाहिए। 23. पुदिव भंते ! सत्तमे तणुवाते ? पच्छा सत्तमे घणवाते ? एवं पितहेच नेतन्वं जाव सम्वद्धा। [23 प्र.] भगवन् ! पहले सप्तम तनुवात है और पीछे सप्तम घनवात है ? [23 उ.] रोह ! यह भी उसी प्रकार यावन् सर्वाद्धा तक जानना चाहिए। 24. एवं उवरिल्लं एक्केक्कं संजोयंतणं जो जो हेढिल्लो तं तं छड्डेतेणं नेयन्वं जाव अतीतप्रणागतद्धा पच्छा सव्वद्धा जाव प्रणाणुपुवी एसा रोहा ! सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ! जाव' विहरति। [24] इस प्रकार ऊपर के एक-एक (स्थान) का संयोग करते हुए और नीचे का जो-जो स्थान हो, उसे छोड़ते हुए पूर्ववन् समझना चाहिए, यावत् अतीत और अनागत काल और फिर सद्धिा (सर्वकाल) तक, यावत् हे रोह ! इसमें कोई पूर्वापर का क्रम नहीं होता। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर रोह अनगार तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। 1. 'जाव' पद से यहाँ सू. 20 में अंकित गाथाद्वयगत पदों की योजना कर लेनी चाहिए। 2 'जाव' पद 'भगवं महावीरं तिक्त्तो "पज्जुवासमाणे' पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org