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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [679 3. से नणं भंते ! काउलेस्से आउकाइए, काउलेस्सेहितो प्राउकाइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभति, माणुस्सं विग्गहं लभित्ता केवलं बोहि बुज्झति जाय अंतं करेति ? हंता, मागंदियपुत्ता ! जाव अंतं करेति / [3 प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी अप्कायिकजीव कापोतलेश्यी अप्कायिकजीवों में से मर कर अन्त र रहित मनुष्यशरीर प्राप्त करता है ? फिर केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [4 उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है / 4. से नणं भंते ! काउलेस्से बणस्सइकाइए.? एवं चेव जाव अंतं करेति / [4 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिकजीव के सम्बन्ध में भी वही प्रश्न है ? [4 उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। 5. 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति मागंदिययुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव नमंसित्ता जेणेव समणे निग्गथे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 समणे निग्गंथे एवं वदासी–एवं खलु प्रज्जो! काउलेस्से पुढ विकाइए तहेव जाव अंतं करेति / एवं खलु प्रज्जो! काउलेस्से प्राउक्काइए जाव अंतं करेति / एवं खलु प्रज्जो ! काउलेस्से वणस्सतिकाइए जाव अंतं करेति' / [5] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं' यों कह कर माकन्दिकपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर को यावत् वन्दना-नमस्कार करके जहाँ श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहाँ उनके पास आए और उनसे इस प्रकार कहने लगे-पायों ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार, हे पार्यो ! कापोतलेश्यी अप्कायिक जीब भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, और इसी प्रकार कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव भी, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 6. तए णं ते समणा निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयम नो सद्दहति 3, एयमट्ठ असदहमाणा 3 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, ते० उ०२ समण भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० २एवं क्यासी-एवं खल भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइक्खइ जाव परूवेइ- 'एवं खलु प्रज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेति, एवं वणस्सतिकाइए वि जाव अंतं करेति / से कहमेयं भंते ! एवं' ? 'अज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते समणे निग्गथे आमंतित्ता एवं वयासी-जं गं अज्जो ! मार्गदियपुत्ते अणगारे तुम्भे एवमाइक्खइ जाव परुवेइएवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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