SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1923
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 658] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 47. एवं मणुस्से वि। [47] इसी प्रकार (एक अकषायो) मनुष्य भी (समझना चाहिए / ) 48. सिद्ध पढमे, नो अपढमे। [48] (अकषायी एक) सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं / 49. पुहत्तणं जीवा मणुस्सा वि पढमा वि, अपढमा वि / [46] बहुवचन से अकषायी जीव प्रथम भी हैं, अप्रथम भी। 50. सिद्धा पढमा, नो अपढमा। [50] बहुवचन से अकषायो सिद्धजीव प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / विवेचन-(८) कषायद्वार--प्रस्तुत द्वार में (सू. 45 से 50 तक में) एक अनेक सकषायी और अकषायी जीव, मनुष्य एवं सिद्धों में सकषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। सकषायो अप्रथम क्यों ? क्योंकि सकपायित्व अनादि है, इसलिए यह प्राहारक वत् अप्रथम है। प्रकषायो जीव, मनुष्य और सिद्ध एक हो या अनेक, यदि यथाख्यात चारित्री हैं, तो वे प्रथम हैं, क्योंकि यह इन्हें पहली बार ही प्राप्त होता है, बार-बार नहीं / किन्तु अकषायी सिद्ध, एक हों या अनेक, वे प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वानुगत अकषाय भाव प्रथम बार ही प्राप्त होता है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहवचन से यथायोग्य जानि प्रज्ञानिभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 51. णाणी एगत्त-पुहतेणं जहा सम्मट्ठिी (सु० 33-37) / [51] ज्ञानी जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होते हैं / 52. प्राभिणिवोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी एगत्त-पुहत्तेणं एवं चेव, नवरं जस्स जं अस्थि / [52 आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यायज्ञानी, एकवचन और बहुवचन से, इसी प्रकार हैं। विशेष यह है जिस जीव के जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिए / 53. केवलनाणी जीवे मणुस्से सिद्ध य एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा / [53] केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। - - - -- -- -- - -- 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 735 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy